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कांग्रेस में अहमद ‘पटेल’ की सरदारी ख़त्म

इन दिनों संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। चुनाव दर चुनाव कांग्रेस को मिल रही विफलता ने कांग्रेस के रणनीतिकारों को सोचने पर विवश कर दिया है कि आखिर उनसे चूक कहां हुई। पिछले दस सालों से कांग्रेस में अहमद पटेल की प्रमुख भूमिका रही है। इन बीते वर्षों में कांग्रेस संगठन से लेकर चुनावी रणनीति तक बनाने में अहमद की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में वफादारों की कोई कमी रही है। शुरूआत से यह कैडर बेस्ड पार्टी रही है। कभी अखिल भारतीय स्तर पर इसका जबर्दस्त जनाधार हुआ करता था, मगर धीरे-धीरे यह पार्टी सिमटती और सिकुड़ती चली जा रही है। इसी पार्टी के वफादारों में कभी माखनलाल फोतेदार, आर के धवन, बी जॉर्ज की गिनती होती थी, आज पार्टी में वफादार नाम के रह गए हैं, जिसका खामियाजा पार्टी को हार के रूप में उठाना पड़ रहा है।

कई राज्यों में पार्टी पिछलग्गू की भूमिका में आ चुकी है। एक समय में जिन वफादारों की बदौलत कांग्रेस ने अपनी सत्ता स्थापित की थी, वह आज पार्टीविरोधी नेताओं की वजह से गर्त में जा रही है। अहमद की अहमियत से सभी वाकिफ हैं, मगर यही वो अहमद हैं, जो कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को भी आंखें दिखाने से नहीं चुके और उनकी भूमिका तक को पार्टी में सीमित कर दिया है। जब-जब कांग्रेस ने संगठन से अहमद पटेल को दूर करने की कोशिश की, तब-तब सोनिया और राहुल दोनों मुसीबत में आते दिखे। सोनिया और राहुल को अहमद की कारगुजारियों की वजह से नेशनल हेराल्ड केस मामले में कोर्ट तक जाना पड़ा। कोर्ट के संज्ञान के बाद, इन दोनों नेताओं को जमानती राशि देकर अपनी मान-प्रतिष्ठा बचानी पड़ी।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पार्टी अपने गिरते ग्राफ की वजह से चिंतित नहीं है और हार की समीक्षा नहीं चाहती। भले ही सार्वजनिक तौर पर या मीडिया के सामने समीक्षा की बात भले न कहें, मगर वार रूम में सोनिया और राहुल अपने विश्वस्थ लोगों के साथ इसे दूर करने पर चर्चा अवश्य करते हैं। राहुल ने जब-जब जोश दिखाया है, तब-तब पार्टी के अंदर से उनके खिलाफ अंगुली उठी है। पूर्व में पृथ्वीराज चौहान ने राहुल के खिलाफ बयान दिया था। चौहान की गिनती आधारविहीन नेताओं के रूप में होती है। वे नामिनी के रूप में संगठन और सरकार में शामिल थे। सोनिया की कृपा और अहमद पटेल की वजह से उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया गया था। विगत विधानसभा चुनाव में भी अहमद-पृथ्वीराज की जोड़ी ने जबर्दस्त तरीके से खेमेबाजी की। अपने विधानसभा सीट को छोड़कर पृथ्वीराज चौहान ने कहीं भी चुनावी प्रचार में हिस्सा नहीं लिया। यहां तक कि कांग्रेस की सबसे सुरक्षित सीट करार में 7 बार के विधायक का टिकट तक काट दिया गया। बमुश्किल सोनिया-राहुल के प्रति समर्पित कार्यकर्ताओं की वजह से यह सीट बच पाई। महाराष्ट्र कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। 78 के चुनाव में भी पार्टी को सफलता मिली थी। मगर हालिया निकाय चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री और अहमद के करीबी अशोक चौहान की नकारात्मक कार्यशैली ने पार्टी का बेड़ा गर्क कर दिया। पार्टी के कुछ नेताओं ने यहां तक कहा है कि टिकट के नाम इकट्ठा किए गए पैसे भी चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को नहीं दिए गए। हद तो तब हो गई जब जब कांग्रेस के संसदीय बोर्ड ने घोषित सूची के अतिरिक्त उम्मीदवारों को एबी फार्म जारी कर दिया। कोर्ट ने जब इस मामले का संज्ञान लिया तो कांग्रेस को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। मगर तब कांग्रेस का चुनावी माहौल पूरी तरह से बिगड़ चुका था।

कांग्रेस का एक तबका जो आधारविहीन नेताओं का है, उन्हें केवल अहमद पटेल की कृपा से ही कांग्रेस संगठन में जगह मिली। बी के हरिप्रसाद, मोहन प्रकाश, ऑस्कर फर्नांडीस, मोतीलाल वोरा, जनार्दन द्विवेदी और मधुसूदन मिस्त्री जैसे कई नाम इस फेहरिस्त में शामिल हैं। इसके अलावा शकील अहमद, पी सी चाको को अहमद के करीबी होने का फायदा मिला और संगठन में इनको जगह मिली। इन सभी नेताओं ने अहमद के इशारे पर ही कांग्रेस संगठन को कमजोर करने का काम किया। संगठन में पदों की बंदरबांट से लेकर चुनाव में टिकट बेचने तक के आरोप अहमद पर लगते रहे हैं।

हालिया संपन्न यूपी के विधानसभा चुनाव में भी अधिकतर कांग्रेसी नेता मानते रहे कि मोदी की हवा नहीं है, मगर चुनाव के ऐन पहले सुनियोजित षड्यंत्र के तहत यूपी में पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में एक साल से चल रहे सघन चुनावी अभियान को रोक दिया गया, मजबूरन कांग्रेस को सपा से समझौता करना पड़ा। इस चुनाव में कांग्रेस को 50 सीटें ऐसी मिली, जिस पर न तो कांग्रेस न ही सपा उम्मीदवार कभी जीता था। इसके अलावा 17 कांग्रेस के मजबूत उम्मीदवारों के सामने सपा के बागी उम्मीदवारों की वजह से पार्टी को मुंहकी खानी पड़ी। 15 सीटें ऐसी थी जिस पर कांग्रेसी ने दावा ठोका था, मगर वे सीटें सपा की खाते में गई। प्रत्येक सीट पर स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने 20-25 लाख रूपए खर्च किए थे, मगर आधारविहीन नेताओं की षड्यंत्र की वजह से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। यूपी चुनाव में जिस प्रकार इन्हीं नेताओं ने जातिगत समीकरण को जिस तरह से बैकफुट पर धकेला, उसमें फिर से एक बार साबित किया है कि किस प्रकार इन नेताओं की टोली सोनिया-राहुल के राह में कांटे बिछाने का काम कर रही है। राज बब्बर भी टीम भी इस जातिगत समीकरण की भेंट चढ़ गई।

दिल्ली के हालिया संपन्न एमसीडी चुनाव में “भाई” का हाथ दिखाई दिया और मजबूती से उभर रही कांग्रेस महज 26 सीटों पर सिमट कर रह गई। यहां भी स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की उपेक्षा और मचान के शेरों ने चुनाव लड़वाया। षड्यंत्र के तहत कांग्रेसी नेताओं ने बागी तेवर दिखाए जिसकी वजह से अपेक्षा से भी बहुत कम सीटों पर पार्टी को संतोष करना पड़ा। इसमें कांग्रेस अध्यक्षा के सामने इस मुहिम में शीला दीक्षित भी शामिल हुईं। यह सच है कि राहुल गांधी के बिना इक्का-दुक्का नेता ही अपनी बदौलत कांग्रेस को सीट दिलाने की स्थिति में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकाबले की शुरूआत राहुल गांधी ने की थी। कई मोर्चों पर राहुल मोदी से लोहा लेने में आगे दिखे। राहुल के सामने मोदी की अपेक्षा इन आधारविहीन नेताओं की चुनौती ज्यादा बड़ी है। परिपक्व राहुल धीरे-धीरे संगठन में परिवर्तन कर यह संकेत दे रहे हैं कि आज नहीं तो कल कांग्रेस का होगा। यानी कांग्रेस पुर्नस्थापित होगी।

कांग्रेस के आम कार्यकत्र्ताओं का मानना है कि जिस दिन राहुल गांधी अहमद पटेल को हटाने में कामयाब हो जाएं, उस दिन से पार्टी का कायाकल्प होने लगेगा। दरअसल यह आधारविहीन नेता न ही कुशल वक्ता है और न ही अच्छा संगठनकत्र्ता। अहमद ने हमेशा बाॅरो प्लेयर्स को ही तरजीह दी है, जो न तो कांग्रेसी कार्यकत्र्ताओं की क्षमता से वाकिफ हैं और न ही संगठन को मजबूती देने में सशक्त। इसी का खामियाजा कांग्रेस यूपी, उत्तराखंड, महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव सहित मुंबई की बीएमसी, दिल्ली एमसीडी जैसी अतिमहत्वपूर्ण चुनाव में भुगत चुकी है। वर्तमान समय में आसार “अहमद” पारी की समाप्ति के नजर आ रहे हैं यानी मचान का यह शेर पैवेलियन की दिशा की ओर अग्रसर है।

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