भारतीय शहरों में भारी ट्रैफिक की वजह क्या ‘उबर’ और ‘ओला’ हैं? इसका जवाब तलाशना मुश्किल है, क्योंकि उबर और ओला (एएनआई टेक्नोलॉजिज प्राइवेट लिमिटेड) के भारत आने से पहले ही यहां की सड़कें हांफ रही थीं। हालांकि इस सवाल से दुनिया के कई योजनाकार और प्रशासक भी जूझ रहे हैं, पर उन्हें इसका कोई ठोस जवाब नहीं मिल रहा है। सलर कन्सल्टिंग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि न्यूयॉर्क शहर में ट्रैफिक की समस्या बढ़ने की वजह कैब मुहैया कराने वाली उबर जैसी सेवाएं भी हो सकती हैं, हालांकि कंपनियों को यह तर्क कतई मंजूर नहीं है।
बावजूद इसके यह एक सच्चाई है कि सड़कों पर कैब के बढ़ जाने का बड़ा कारण इन्हें मुहैया कराने वाली सेवाओं की शुरुआत है। द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट भी कहती है कि इस वर्ष जनवरी में न्यूयॉर्क की सड़कों पर 14,000 के करीब पीली टैक्सियां दौड़ रही थीं, जबकि करीब 45,000 एप-वाली टैक्सियां। यदि हम अपने देश की ही बात करें, तो एनसीआर (दिल्ली और इसके आसपास के इलाके) की सड़कों पर 1.25 लाख से अधिक एप-वाली टैक्सियां (और 10,000 के करीब काली व पीली रंग की टैक्सियां) दौड़ती हैं। जाहिर है, ये सवा लाख से अधिक टैक्सियां पिछले कुछ वर्षों में ही सड़कों पर उतरी हैं।
एनसीआर में करीब 25 से 30 लाख कारें हैं। भले ही सभी गाड़ियां हर दिन सड़कों पर नहीं उतरती हों; संभव है कि कुछ गाड़ियां तो बिल्कुल ही नहीं उतरतीं, मगर तब भी हमारे पास इसका कोई ठोस आंकड़ा नहीं है कि एनसीआर की सड़कों पर किसी खास दिन कितनी गाड़ियां दौड़ती हैं? मानता हूं कि यह सवा लाख की बड़ी संख्या पूरी तरह अनुमान पर आधारित है, फिर भी फरवरी के मध्य में जब कैब-आधारित टैक्सियां हड़ताल पर गई थीं, तो ऑफिस आना-जाना वाकई आसान हो गया था। तब ऐसा लगा, मानो एनसीआर में ट्रैफिक की समस्या में इन टैक्सियों का योगदान कम नहीं है।
दरअसल, टैक्सियों को लेकर कायदे-कानूनों के अभाव ने सड़कों पर इनकी संख्या बढ़ाई है। हालांकि ऐसा नहीं है कि इनकी अधिकाधिक संख्या से ड्राइवरों के हित सध रहे हैं। अगर ऐसा होता, तो भाड़ा बढ़ाने को लेकर ये फरवरी में विरोध-प्रदर्शन न करते। जब उबर और ओला ने अपनी सेवाओं की शुरुआत की थी, तो उन्होंने असामान्य ढंग से काफी ज्यादा इन्सेंटिव (प्रोत्साहन) देने की बात कहकर और कारों की खरीदारी के लिए कर्ज की सुविधा देकर ड्राइवरों को खासा लुभाया था। खुद की टैक्सी होने का आकर्षण और इन्सेंटिव में अंधे होकर कई ड्राइवरों ने उस यात्री-किराये के स्थायित्व पर कोई सवाल ही नहीं किया, जो उनके लिए कंपनी ने तय किया था। और न ही उन्होंने यह जानना जरूरी समझा कि ये इन्सेंटिव उन्हें कितने दिनों तक मिलेंगे? अब जब वक्त बीतने के साथ-साथ काफी टैक्सियां एप से जुड़ गई हैं, तो कंपनियों ने कई इन्सेंटिव्स खत्म कर दिए हैं। मगर भाड़ा अब भी कम है, भले ही उसमें पहले की तुलना में कुछ वृद्धि हुई हो।
बहरहाल, इन आंकड़ों को यदि सही मानें, तो क्या एनसीआर को वाकई एप-आधारित 1.25 लाख टैक्सियों की जरूरत है? जाहिर है, कुछ ड्राइवरों को अपनी टैक्सियां बंद करनी ही होंगी और अपने सपने से मुंह मोड़ना होगा। कुछ तो कर्ज चुकाने में अपनी असमर्थता जताकर हाथ भी खड़े करने लगे हैं, जिस कारण उधार देने वाले कई साहूकार अब वैसे ड्राइवरों को कर्ज देने से मना करने लगे हैं, जो खुद की गाड़ी खरीदकर एप-आधारिक टैक्सी क्रांति का हमसफर बनना चाहते हैं।
इन कंपनियों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। वे खुद अपना नुकसान कर रही हैं। ऐसा लगता है, मानो वे वेंचर कैपिटल (नए उद्योग में निवेश के लिए बड़ी कंपनियों द्वारा लगाई गई जोखिम पूंजी) से मालामाल हैं और किसी भी तरह के नुकसान से बेपरवाह। इस लिहाज से देखें, तो इन टैक्सियों में सफर करने वाले लोगों को ही फायदा मिला है। ड्राइवरों को भी जरूर लाभ हुआ, मगर सिर्फ उन्हीं को, जो शुरुआती दिनों में इससे जुड़े। उन्होंने अब तक अपना कर्ज लगभग चुका दिया होगा, क्योंकि शुरुआती इन्सेंटिव वाकई काफी ज्यादा थे।
इन कंपनियों की सामने कई दूसरे संकट भी हैं। बीच फरवरी में ड्राइवरों द्वारा किए गए आंदोलन से इन्हें हर उस बाजार में ठोकरें मिलीं (और मिल रही हैं), जहां इनका काम-धंधा फैला है। सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या इनके ड्राइवरों को कंपनी का कर्मचारी मानना चाहिए या फिर ठेके का कामगार? कंपनियां इन्हें ठेके का कर्मी ही मानती हैं, जबकि ड्राइवर कंपनी का कर्मचारी बनने को इच्छुक हैं। भारत में भी तस्वीर इससे अलग नहीं है। हालांकि, ब्रिटेन में अदालत ने यह फैसला दिया है कि उबर तमाम ड्राइवरों को अपना कर्मचारी माने। दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी ऐसे मामले चल रहे हैं।
ड्राइवरों को अपना कर्मचारी मानने का एक अर्थ इन कंपनियों द्वारा फुलाए गए ‘ऐसेट-लाइट मॉडल’ गुब्बारे की हवा निकलना भी होगा। यह मॉडल दरअसल खुद की कार न खरीदकर ड्राइवर के साथ कॉन्ट्रैक्ट करते हुए अपना धंधा चलाने और लाभ में ड्राइवर को साझीदार बनाने की बात कहता है। सवाल यह है कि क्या अब ड्राइवरों की निष्ठा कमाने के लिए ये कंपनियां खुद कार खरीदेंगी और उन्हें लीज पर देने का प्रयोग करेंगी?
इस सवाल को थोड़ा और व्यापक करके देखें, तो भारत में ऐसेट-लाइड बिजनेस मॉडल की व्यावहारिता पर ही प्रश्न खड़े हो गए हैं। वजह?
एक अन्य कंपनी ओयो रूम्स (ओरावेल स्टेज प्राइवेट लिमिटेड) ने भी, जिसे प्रधानमंत्री ने देश की सबसे बड़ी होटल कंपनी बताया था, बड़े होटलों के नक्शेकदम पर चलते हुए अब पूरे होटल को लीज पर लेना शुरू कर दिया है। उसके पास भी अपना मालिकाना हक वाला कोई होटल नहीं था और ‘ऐसेट-लाइट मॉडल’ का इसने खूब प्रचार किया था। अपना रुख बदलने को अब वह इसलिए मजबूर हुई है, क्योंकि किसी दूसरे तरीके से ग्राहकों को बेहतर व उच्च गुणवत्ता वाली सुविधा देना उसके लिए मुश्किल हो चला है।