कश्मीर में कौन घोंट रहा “लोकतंत्र” का गला ?

कश्मीर के प्रतिष्ठित वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता 1951 के पहले चुनाव में चुने गए विधायकों को ‘मेड बाई ख़ालिक़’ कहते थे- अब्दुल ख़ालिक़ मलिक नाम के उस चुनाव अधिकारी के नाम पर जिसने नेशनल कॉफ्रेंस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले किसी भी उम्मीदवार का पर्चा किसी न किसी बहाने ख़ारिज़ कर दिया था. नतीजा यह कि इस पहले चुनाव में कुल 75 सीटों में से केवल 2 सीटों पर चुनाव हुआ और बाक़ी पर शेख़ अब्दुल्ला के उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए!

चुनाव बाक़ी देश में सरकारों के बदलने के सबब होते हैं लेकिन जम्मू और कश्मीर में इनके मानी इससे कहीं आगे होते हैं. एक सफल चुनाव भारत सरकार के लिए पूरी दुनिया को कश्मीरी जनता के भारतीय लोकतन्त्र में आस्था का भरोसा दिलाने वाले होते हैं तो एक असफल चुनाव पाकिस्तान और अलगाववादी नेताओं के कश्मीरी जनता के भारत से असंतोष का प्रचार करने के लिए ठोस सबूत. ऐसे में हालिया उपचुनाव में कश्मीरी राजनीति के दो प्रमुख परिवारों के सदस्यों के बावजूद केवल 6.5 प्रतिशत जनता की भागीदारी और व्यापक हिंसा के प्रभाव भी किसी की हार-जीत से बहुत आगे जाते हैं.

कश्मीरी राजनीति को बहुत क़रीब से देखने वाले बलराज पुरी ने अपनी क़िताब में कश्मीरी समस्या का एक बड़ा कारण यह बताया है कि जहां बाक़ी देश में लोगों का गुस्सा चुनावों मे निकल जाता है, सरकारें उनकी मर्ज़ी से चुनी जाती हैं और लोकतन्त्र में भरोसा बना रहता है, वहीं कश्मीर में केंद्रीय सत्ताओं ने अपने नियंत्रण को बनाए रखने के लिए वहां वैकल्पिक राजनीतिक दलों और विचारधाराओं को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया, मनचाहा परिणाम पाने के लिए हर सही ग़लत हथकंडे अपनाए और परिणाम यह कि सत्ता-विरोधी आवाज़ें भारत-विरोधी आवाज़ों में बदलती चलीं गईं.

आप देखिए कि 1951 में सारी सीटें जीतकर आने वाले शेख़ अब्दुल्ला अगले ही साल गिरफ़्तार कर लिए जाते हैं और बख़्शी ग़ुलाम मोहम्मद कश्मीर के नए वज़ीर-ए-आज़म बनाए जाते हैं. 1957 में जब दुबारा चुनाव होते हैं तो भी 70 में से 35 सीटों पर कोई विरोधी उम्मीदवार नहीं खड़ा होता और बख़्शी साहब के नेतृत्व वाली नेशनल कॉफ्रेंस 70 में से 68 सीटों पर चुनाव जीतती है. 1962 में हुए अगले चुनाव में फिर वही खेल दुहराया जाता है और नेशनल कॉफ्रेंस फिर सारी 70 सीटों पर चुनाव जीतती है! 1967 में बख़्शी दिल्ली की नज़र से उतर जाते हैं, भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाते हैं और उनके प्रतिद्वंद्वी ग़ुलाम मोहम्म्द सादिक़ अपने सदस्यों के साथ कांग्रेस में शामिल होते हैं और 61 सीटें उनके खाते में जाती हैं, 70 में से 22 सीटों पर निर्विरोध उम्मीदवार चुने जाते हैं!

आज संवेदनशील माने जाने वाले अनंतनाग, गान्देरबल, पुलवामा, लोलाब, कंगन जैसे अनेक इलाक़ों में 1977 से पहले किसी को वोट डालने का मौक़ा ही नहीं मिला था. क्या आप देश के किसी और सूबे में इस स्थिति की कल्पना कर सकते हैं? इस पूरे वक़्फ़े में कभी कश्मीर में 25 प्रतिशत से ज़्यादा वोट नहीं पड़े. 1977 में जब जनता सरकार आई तो पहली बार कश्मीर की सभी सीटों पर चुनाव हुए. कहते हैं कि इस बार बहुत स्पष्ट निर्देश थे कि चुनावों में कोई धांधली नहीं होनी चाहिए.

इन चुनावों में शेख अब्दुल्ला को 47, जनता पार्टी को 13, कांग्रेस को 11 और जमाते-इस्लामी को 1 सीट मिली, 4 सीटों पर आज़ाद उम्मीदवार जीते. कश्मीर के इतिहास के सबसे साफ़-सुथरे माने जाने वाले इन चुनावों में 67.2% जनता ने हिस्सेदारी की! शेख़ अब्दुल्ला के साथ-साथ निश्चित रूप से यह भारतीय लोकतन्त्र में भी जनता का भरोसा था और आगामी चुनाव (1983) में यह और मज़बूत हुआ जब यह भागीदारी बढ़कर 73.2% हो गई.

इन चुनावों मे इंदिरा गांधी ने नेशनल कॉफ्रेंस द्वारा पास किए गए उस बिल को मुद्दा बनाया जिसमें बंटवारे के दौरान जम्मू से पाकिस्तान चले गए लोगों के लौटने की व्यवस्था थी. इंदिरा इसकी मुख़ालिफ़त कर हिन्दू कॉर्ड खेल रही थीं, उन्होंने इसे जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पास होने के बाद भी राष्ट्रपति के हस्तक्षेप से कानून नहीं बनने दिया था. इसका असर हुआ और एक तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते जहां घाटी की सारी सीटें नेशनल कॉफ्रेंस को मिलीं, वहीं जम्मू और लद्दाख की सारी सीटें कांग्रेस के खाते में गईं.

इस जीत से उत्साहित फ़ारुख़ अब्दुल्ला ने विपक्षी मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन श्रीनगर में बुलाया. इंदिरा गांधी को यह क़दम पसंद नहीं आया और फ़ारूख़ और इंदिरा की तनातनी के चलते दिल्ली ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया, फ़ारूख़ के बहनोई ग़ुलाम मोहम्म्द शाह 12 विधायकों को लेकर नेशनल कॉफ्रेंस से अलग हो गए और 1984 में कांग्रेस के समर्थन से वह मुख्यमंत्री बने.

हालांकि वह दो साल ही मुख्यमंत्री रह सके और कश्मीर घाटी में दंगे फैलने पर 7 मार्च 1986 को उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया गया, वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ़ ज़मील सहित कई लोगों ने इन दंगों का आरोप तब कांग्रेस के नेता रहे मुफ़्ती मोहम्मद सईद पर लगाया था. इस बीच राजीव गांधी और फ़ारूख़ के बीच अच्छे संबंध बन गए, उन्होंने मुफ़्ती मोहम्मद सईद के मुख्यमंत्री बनने के स्वप्न को धाराशायी करते हुए वहां राष्ट्रपति शासन लागू करके मुफ़्ती को पर्यटन मंत्रालय देकर दिल्ली बुला लिया. बाद में एक बार फिर दिल्ली के सहयोग से फ़ारूख़ कश्मीर के मुख्यमंत्री बने.

लेकिन कश्मीर की राजनीति में असल मोड़ आया 1987 के चुनावों से. सुस्त पड़ी जमात-ए-इस्लामी के विभिन्न धड़ों ने 1980 के दशक में ख़ुद को यूनाइटेड मुस्लिम फ्रंट के रूप में संगठित किया, 1986 में जब इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो इसने ख़ुद को मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के रूप में फिर से संगठित किया और 1987 के चुनावों में नेशनल कॉफ्रेंस तथा कांग्रेस के गठबंधन के सामने मुख्य विपक्षी दल की तरह सामने आई.

जनता का उत्साह इस क़दर था कि इस चुनाव में लगभग 75 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया. लेकिन केंद्र सरकार किसी क़ीमत पर इस गठबंधन को चुनाव जीतने नहीं देना चाहती थी. नतीजतन आम मान्यता है कि 1987 के चुनाव कश्मीर के चुनावी इतिहास के सबसे काले चुनाव थे. बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप किया गया और नेशनल कॉन्फ्रेंस को 40 तथा कांग्रेस को 26 सीटें मिलीं जबकि मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को केवल 4. चुनाव हारने वालों में सैयद सलाहुद्दीन शामिल थे, हालांकि इस गठबंधन के नेता सैयद अली शाह गिलानी सोपोर से कामयाब रहे थे. तब मोहम्मद यूसुफ़ शाह के नाम से जाने-जाने वाले सलाहुद्दीन के क्षेत्र में मतगणना के समय हार मानकर घर चले गए कांग्रेस नेता को जब पता चला कि वह चुनाव जीत गए हैं तो वह ख़ुद भरोसा न कर सके.

बहुत बाद में इंडिया टुडे को दिए एक साक्षात्कार में फ़ारूख़ ने स्वीकार किया कि चुनावों में धांधली हुई है, हालांकि इसका आरोप उन्होंने केंद्र सरकार पर लगाया. 1987 के इस चुनाव के बाद कश्मीरी जनता की चुनावों से किसी बदलाव की उम्मीद पूरी तरह ध्वस्त हो गई. बड़ी संख्या में युवाओं ने हथियार उठाए और कश्मीर ने नब्बे के दशक का वह ख़ूनी खेल देखा जिसमें कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी तो हज़ारों की संख्या में मुस्लिम नौजवान मारे गए.

1989 में किसी तरह लोकसभा चुनाव हुए तो सिर्फ़ 25.68 प्रतिशत मतदान हुआ और 1991 में चुनाव हो ही नहीं पाए. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के धड़े 1993 में अलगाववादी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के रूप में इकट्ठा हुए और उसके बाद से लगातार चुनाव बहिष्कार की अपील करते रहे. जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा रहा और अगले विधासभा चुनाव 1996 में जाकर हो पाए जब लगभग 51 फ़ीसद मतदान के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस 57 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन कांग्रेस के क्षेत्रों में सेंध लगाकर भाजपा 8 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और कांग्रेस को सात सीटें मिलीं.

इसके पहले इसी साल हुए लोकसभा चुनावों का नेशनल कॉफ्रेंस ने बहिष्कार किया था. लेकिन अब तक चुनावों में बहिष्कार की अपील, अलगाववादी हिंसा और सेना की बड़ी भूमिका आम हो चुकी थी. 2002 का चुनाव आते-आते मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने अपनी अलग पार्टी बना ली और इस चुनाव मे वह कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन सरकार के समक्ष मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरे. मतदान का प्रतिशत 45 था, जो उन हालात में बुरा कतई नहीं था.

2008 में मतदान प्रतिशत और बेहतर होकर 60 के पार पहुंच गया जबकि नतीजे कमोबेश वही रहे. अलगाववादियों के लगातार बहिष्कार की अपील के बाद भी मतदान के ये प्रतिशत हालात के बेहतर होने के साथ-साथ बेहतर होते रहे. अटल बिहारी बाजपेयी सरकार की लगातार बातचीत कर मरहम लगाने की और उसके बाद मनमोहन सिंह की व्यापार संवर्धन की नीतियों ने 2014 तक हालात काफ़ी हद तक नियंत्रण मे ला दिये थे और इस साल शायद अपने इतिहास में पहली बार कश्मीरी जनता वोट से सरकार बदलने में सफल रही. 65 प्रतिशत से अधिक जनता ने मतदान में हिस्सा लिया और लगातार कश्मीर के सत्ता में बनी रही नेशनल कॉन्फ्रेंस को हटाकर पीडीपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. भाजपा को भी 25 सीटें मिलीं और दोनों ने मिलकर राज्य में सरकार बनाई.

इस पृष्ठभूमि में कल के चुनावों में कश्मीर के इतिहास का सबसे कम मतदान प्रतिशत पिछले दिनों, ख़ासतौर पर बुरहान वानी की हत्या के बाद के हालात में कश्मीरी जनता के मानस में आए परिवर्तनों को बताता है. हर ऐसे जनाज़े के पीछे उमड़ पड़ने वाली हज़ारों की भीड़ को देशद्रोही या पाकिस्तान-परस्त कहकर निपटा देना आसान है लेकिन यह सवाल फिर भी रह जाएगा कि तीन साल पहले तक चुनावों में इसी हुर्रियत के बहिष्कार की अपील को ठुकरा कर बड़ी संख्या में लाइनों में लगने वाले लोग आज जनाज़ों के पीछे भारत-विरोधी नारों के साथ क्यों हैं?

कैसे नब्बे के दशक के बाद पहली बार कश्मीरी जनता इस क़दर उद्वेलित है? और अगर 90 फ़ीसद लोग भारत के ख़िलाफ़ हैं तो क्या सिर्फ़ बंदूक के दम पर उन्हें अपने साथ बनाए रखा जा सकेगा? पैलेट गन से बिंधी बच्चों, बूढ़ों, औरतों और नौजवानों की तस्वीरें हम सबने देखी हैं, हालात कैसे भी हों क्या देश के एक हिस्से की जनता के साथ उस व्यवहार को किसी भी तर्क से न्यायसंगत ठहराया जा सकता है?

ये सवाल आसान नहीं. असल में कश्मीर की कशमकश ही आसान नहीं. जीते हुए भरोसे एक ग़लत क़दम से टूट जाते हैं. पता नहीं अभी वक़्त बचा है या देर हो चुकी है लेकिन इस मतदान ने इतना तो बता ही दिया है कि अगर बंदूक की जगह बातचीत, सज़ा की जगह मरहम और अविश्वास की जगह भरोसे के लिए ईमानदार कोशिश आज शुरू नहीं की गई तो हालात बद से बदतर होते चले जाएंगे.

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