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नदी की राजनीति पर अंधविश्वासों के पुल

नदियां पंडेपुजारियों के लिए कैसे वरदान हैं, यह सच इस यात्रा से फिर समझ आया कि क्यों हिंदू धर्मग्रंथों  में नदियों की महिमा चमत्कारिक ढंग से गाई गई है. ऐसी कोई भी नदी नहीं है जिस के बारे में यह न लिखा गया हो कि इस में डुबकी लगाने से पाप धुलते हैं और मोक्ष मिलता है.

जब देशभर में नर्मदा यात्रा का मुकम्मल हल्ला मच गया तो उस के समापन के लिए शिवराज सिंह चौहान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुला डाला. नरेंद्र मोदी की व्यस्तता के चलते यात्रा का समापन 4 दिन बढ़ा दिया गया. इस तरह यह यात्रा 11 मई की जगह 15 मई को खत्म हुई. इस से उस का खर्च और बढ़ा जिस की चिंता शिवराज सिंह ने नहीं की. हद तब हो गई जब नरेंद्र मोदी के हवाई जहाज के लिए नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक में नया हैलीपैड बनवाया गया. जानकार हैरान थे कि जब पहले से ही हैलीपेड मौजूद है तो नया हैलीपैड बनवाने का औचित्य क्या है.

जल्द ही इस सवाल का जवाब भी मिल गया कि दरअसल, अब तक जो भी नेता हवाईयात्रा के जरिए नर्मदा नदी को लांघ कर आया है, उसे इस जुर्रत की कीमत कुरसी गंवा कर चुकाना पड़ी है. इस अंधविश्वास को बनाए रखने के लिए शिवराज सिंह ने नया हैलीपैड ही बनवा डाला. हैरत की बात तो यह भी है कि अपनी कुरसी बचाए रखने के लिए उन्होंने अपने 10 साल से भी ज्यादा के मुख्यमंत्रित्व काल में कभी भी उड़नखटोले के जरिए नर्मदा को नहीं लांघा. सियासी गलियारों में यह चर्चा होती रही कि बात सच है क्योंकि अभी तक जिनजिन नेताओं ने यह रिवाज तोड़ा है, नर्मदा मैया ने उन की कुरसी डुबो दी. इस बाबत जो नाम गिनाए गए, उन में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई सहित अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, विद्याचरण शुक्ल और भैरोसिंह शेखावत प्रमुख हैं. पर इन से भी ज्यादा अहम नाम उमा भारती का लिया गया.

उमा भारती अब से 13 साल पहले मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं लेकिन उन्हें अपने पद से 21 अगस्त, 2004 को इस्तीफा देना पड़ा था. तब किसी ने नहीं कहा था कि चूंकि वे नर्मदा नदी के ऊपर से उड़ी थीं, इसलिए कुरसी गई. तब हुआ यह था कि उमा ने कर्नाटक के हुबली शहर में सांप्रदायिक भाषण दिया था और वहां के विवादित धर्मस्थल ईदगाह मैदान पर तिरंगा फहराया था. उस मैदान पर हिंदू और मुसलमान दोनों ही अपना हक जताते रहे हैं. साल 1994 में उमा पर हुबली में भड़काऊ भाषण देने, धार्मिक उन्माद फैलाने और तिरंगे के अपमान के कुल 13 मामले दर्ज हुए थे.

अदालत ने उन्हें दोषी करार देते उन के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी कर दिया तो मजबूरी में उन्हें पद छोड़ना पड़ा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कुरसी बाबूलाल गौर के पास से होती हुई चमत्कारिक तरीके से शिवराज सिंह चौहान को मिल गई. इन्होंने शायद अपनी धर्मबहन के जाने की वजह पहले ही जान ली थी कि वे हुबली वारंट के चलते नहीं, बल्कि नर्मदा को फांदने के जुर्म में गई थी. नरेंद्र मोदी को नर्मदा की बेरहमी या नाराजगी का शिकार न होना पड़े, इसलिए नया हैलीपैड इस तरह बनवाया कि उन्हें नर्मदा के ऊपर से हो कर न गुजरना पड़े. इस अंधविश्वास के बारे में जिस ने भी सुना, वह नर्मदा के एक और चमत्कार के सामने नतमस्तक हो गया.

अंधविश्वास लोगों की सनातनी कमजोरी है पर शिवराज सिंह की तो कुछ ज्यादा ही है जो वे अशोकनगर जाने से कतराते हैं, जहां के बारे में यह बात कुख्यात है कि वहां जो भी मुख्यमंत्री आया, वह ज्यादा दिनों तक कुरसी पर टिक नहीं पाया.

राज्य में 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक धार्मिकयात्रा का ड्रामा कर रहे शिवराज सिंह चौहान दरअसल धार्मिक पूर्वाग्रहों और कुंठा के शिकार हैं. इसलिए वे अब जरूरत से ज्यादा धर्मकर्म करने लगे हैं. वरना कभी उन की छवि एक विकासशील और कल्याणकारी योजनाएं बनाने वाले युवा नेता की हुआ करती थी. उन की छवि अब पूरी धार्मिक हो गई है तो उन पर तरस आना स्वभाविक बात है.

तरस इसलिए कि उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का हाल सामने है जिन्हें कोई गंगा या दूसरा देवी, देवता नहीं बचा सका. हरीश रावत भी शिवराज सिंह की तरह अंधविश्वास की नदी में गलेगले तक डूब गए थे. हालत तो यह तक हो गई थी कि उन्होंने संजीवनी बूटी ढूंढ़ने के लिए एक टीम गठित कर करोड़ों रुपए फूंक डाले थे. पर जब उत्तराखंड के नतीजे सामने आए तो कांग्रेस औंधेमुंह लुढ़की पड़ी थी और वे 2 सीटों से चुनाव हारे थे.

जनता की उम्मीदों और गुस्से के सामने तमाम टोनेटोटके, अंधविश्वास और तंत्रमंत्र लोकतंत्र में फ्लौप साबित होते हैं. इस के बाद भी नेता सबक नहीं लेते, तो यह उन की कमजोरी और जनता के प्रति उन का अविश्वास ही माना जाएगा.

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