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एक ब्रेक की तलाश में यहां मिलता है सुकून

(सुनील सरीन, NTI न्यूज़ ब्यूरो, नई दिल्ली )

घड़ी की सुईं की तरह दौड़ता यह शरीर भी कभी-कभी एक सुईं जैसा ही हो जाता है। सुईं ‘1’ से ‘2’ की ओर बढ़ती है, ‘2’से ‘3’ की ओर और हम बिस्तर से उठकर वाशरूम की ओर बढ़ते हैं और फिर वाशरूम से दफ्तर की ओर। दिन खत्म होते-होते घड़ी की ये सुईं अंत में फिर ’12’ को छू कर एक नया दिन ढूंढ लेती है। हम भी दोबारा बिस्तर में खुद को गूंथ कर एक नयी सुबह और फिर से उसी दिन को बदली हुई तारीख के साथ अपना लेते हैं।

घड़ी की सुईं जड़ है, स्थिर है, संवेदनहीन है। उसमें कोई चेतना नहीं वह एक मशीन है। वह एक ही तरह से हर दिन को शुरू कर अगले दिन पर आ जाएगी। मगर हम इन्सान हैं, हमारे अन्दर चेतना भी है और संवेदना भी, अगर हमने अपने एवं मशीन के बीच के इस अंतर को मिटा दिया तो ये मशीनें इंसानों को भी मिटा देंगी।

हमारा जीवन भी अगर घड़ी की इसी सुईं सा कहीं घूमता है तो उसका टूटना ज़रूरी है। मशीन जैसे हो  चुके इस भाग-दौड़ भरे जीवन के बीच कभी-कभी इससे भाग-निकलना ज़रूरी है। लेकिन निकल कर कहां जाएं? ये भी एक सवाल है। इसका जवाब है शायद वहां, जहां आप बस खो जाना चाहते हैं, गुम हो जाना चाहते हैं। वो समन्दर की लहर हो सकती है, पहाड़ की चोटी हो सकती है, किसी नदी का किनारा हो सकता है। कोई रेगिस्तान हो सकता है या फिर कोई खुली बालकनी। हाथों में चाय का कप और बैकग्राउंड में कोई पसंदीदा गाना, यह कुछ भी हो सकता है। बस कुछ होना ज़रुरी है… बहुत ज़रूरी है!

ऐसे ही कुछ महीनों पहले दफ्तर का समय बताने वाली यहीं सुइयां चुभने सी लगी थी, लगा कि बस निकल भागें कहीं इस मशीनी दुनिया से। जिसके लिए निकल पड़े हम ऐसे सफ़र पर जहां किसी सुईं की चुभन नहीं थी, बल्कि ठंडी हवा का कोमल एहसास था।

तक़रीबन 11 बजे यमुना बैंक से मिली वैशाली की आखिरी मेट्रो पर सवार होकर, आनंदविहार ISBT स्टेशन पर उतरकर उत्तराखंड परिवहन की बसों को खोज की। टिकट की कुछ तोल-मोल के साथ उस पर सवार हो गए। सुबह के तक़रीबन पांच बजे पहाड़ों की उस ढलान के पास उतरने के बाद ठिठुरने का जवाब नहीं था। ज़बान को ज़रूरत थी तो बस चाय के एक कप की। पहाड़ों के पीछे एक ओर उगते हुए सूरज की कुछ किरणें चोरी से ऐसे झांक रही थी मानो कोई निहार रहा हो। इस नज़ारे भर ने बता दिया था कि आगे दिन कैसा बीतने वाला है।

कैंप वगैरह का इंतजाम करने के बाद कुछ देर तक उत्तर प्रदेश के इस छोटे भाई की ख़ूबसूरती को निहारने का मन हुआ, जिसने सन 2000 में अपना अलग घर बसाया है। थोड़ा चलने पर सब कुछ सामान्य था, कुछ चाय की दुकानें, कुछ मिठाई की और कुछ प्लाटिक के डिब्बों की। थोड़ा आगे चलने पर चंद सीढियां नज़र आई जिन्हें देखकर लग रहा था कि इससे आगे कोई पाथ-वे या उस तरफ कुछ बस्तियां ही होंगी।

कई बार बिना जानकारी के भी घूमना अच्छा होता है, हर कदम पर कुछ नया मिलता है। दूर पहाड़ की चोटियों से लड़खड़ाती सुबह, उगते सूरज की मद्धम रौशनी में गंगा का साफ़ पानी ऐसा लग रहा था, मानो पहाड़ की चोटी से किसी ने मोतियों की माला बस तोड़ के बिखेर दी हो जो बस बिखरती चली आ रही है। गंगा के ऐसे रूप को मेरी आंखों से मैंने पहली बार देखा, जिसे शायद अब कभी भुलाया नहीं जा सकता। सुबह-सुबह पूजा-अर्चना, योग एवं सूर्य नमस्कार करने के लिए साधू-संतों के साथ देस-विदेश के सैलानियों का जखीरा उमड़ता था। इसके बावजूद गंगा के उस निर्मल धारा में एक अनूठी शांति थी। नदी किनारे सुबह की ठण्ड और हवा के थपेड़े अन्दर तक उर्जा भर दे रहे थे। कुछ घंटें घाट पर बिताने के बाद सफ़र की सारी थकावट कहां छूमंतर हो गई, पता ही नहीं चला।

कैंप तक पहुंचने के लिए अभी पहाड़ का घुमावदार तक़रीबन 25KM का रास्ता और तय करना था। दूर पहाड़ की ऊंचाइयों से गंगा की धारा ऐसी लग रही थी मानो किसी ने इंक की बोतल ऊंचे हिमालय से लुढ़का दी हो। डर और जोखिम से भरा ये रास्ता ऊंचाई पर जा कर ख़त्म हुआ, जहां एक ओर पगडण्डी से ढलकता रास्ता, नीचे जाकर गंगा की धारा से जा मिलता था। तक़रीबन 200 मीटर नीचे इसी रास्ते से उतरकर किनारों से कुछ ऊंचाई पर लगे छोटे कैंपों से नदी के बहते पानी का नज़ारा देखते ही बनता था।

रात के अंधेरे में चुप सन्नाटे के बीच नदी के कल-कल बहते हुए पानी की आवाज़ कानों की गहराईयों में उतर कर घुल रही थी। इन्ही मीठी आवाज़ों के बीच रात कट गई और अगली सुबह घनी पहाड़ियों के बीच छोटी सी समतल जगह पर बने बस स्टॉप पर हमने दिल्ली के लिए बस पकड़ी। इस सुन्दर सफ़र की तमाम यादें कुछ दिल में तो कुछ कैमरे में समेटते हुए इस पावन देवभूमि को अलविदा कहकर हमने विदा ली!

अगले दिन एक बार फिर से मैं घड़ी की सुइयों के साथ कदमताल करने के लिए तैयार था।

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