UP की राजनीति में बाहुबलियों की एंट्री की शुरुआत हरिशंकर तिवारी ने ही की!

हरिशकंर तिवारी ‘बाबूजी’ के रूप में आज एक युग का अंत हो गया. यह ऐसा युग था जिसने देश की शूचिता वाली राजनीति का अपराधीकरण किया, बल्कि तमाम अपराधियों के लिए राजनीति का दरवाजा खोल दिया. आज मौका है हरिशंकर तिवारी के जीवन पर समग्र प्रकाश डालने की. दरअसल, बात उन दिनों की जब देश में इंदिरागांधी की सरकार थी. इस सरकार के तानाशाही रवैए के खिलाफ एक तरफ जेपी आंदोलन चरम पर था, वहीं दूसरी ओर से देश की राजनीति में पीछे के रास्ते से अपराध और अपराधियों की घुसपैठ भी हो रही थी.

बल्कि यह कहें कि उत्तर प्रदेश की सियासत के जरिए देश की राजनीति में बाहुबलियों की एंट्री होने को बेताब थी तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. इसके लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश में जमीन तैयार थी. पूर्वांचल में माफिया, शक्ति और सत्ता की लड़ाई शुरू हो चुकी थी.1980 के दशक तक लगभग पूरा पूर्वांचल बाहुबलियों की गिरफ्त में आ चुका था. इन्हीं बाहुबलियों में से एक हरिशंकर तिवारी भी थे.वैसे तो हरिशंकर तिवारी 1972-73 में ही की राजनीति में एंट्री ले चुके थे. वह विधान परिषद का चुनाव भी लड़े, लेकिन हार गए. माना जाता है कि हरिशंकर तिवारी को खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने व्यक्तिगत रुचि लेकर हरवा दिया. रेलवे की ठेकेदारी करते हुए राजनीति में आए हरिशंकर तिवारी के साथ आगे पीछे चलने वालों की लंबी फौज थी.

स्थानीय लोगों की माने तो इस फौज में ज्यादातर अपराधी प्रवृति के लोग थे. इन्हीं लोगों के दम पर पहले रेलवे और फिर कोयले की ठेकेदारी में हरिशंकर तिवारी ने वर्चस्व भी हासिल किया. उन्हीं दिनों वीरेन्द्र प्रताप शाही (Virendra Pratap Shahi) तिवारी गैंग में शामिल हो गए. इसके बाद कभी हरिशंकर तिवारी तो कभी विरेन्द्र प्रताप शाही एक दूसरे का परोक्ष या अपरोक्ष बचाव करते नजर आए. हालांकि यह गठबंधन ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सका. आखिरकार लेनदेन के एक छोटे से विवाद के बाद दोनों जानी दुश्मन हो गए. हरिशंकर तिवारी ने ब्राह्मण छत्रप होने का दावा किया तो वीरेंद्र शाही भी अपराध के क्षेत्र में ठाकुरों का प्रतिनिधित्व करने लगे.

यह संयोग ही था कि साल 1979 में गोरखपुर से लगते कौड़ीराम विधानसभा सीट से विधायक रविन्द्र सिंह की हत्या हो गई. इस वारदात को वीरेंद्र शाही ने लपक लिया और आसपास के ठाकुर बिरादरी के अपराधियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया. इसके बाद वीरेंद्र शाही 1980 में महराजगंज के लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में उतरे और शेर चुनाव चिह्न पर निर्दलीय जीत कर विधानसभा पहुंच गए. वह 1985 में भी इसी विधानसभा से चुनाव जीत कर लखनऊ पहुंचे थे.

उधर, इधर हरिशंकर तिवारी का रेलवे के ठेके से लेकर अन्य जगहों पर वर्चस्व बढ़ता जा रहा था. 1985 के विधानसभा चुनाव में वह देवरिया जेल में रहते हुए चिल्लुपार विधानसभा सीट से निर्दलीय साइकिल चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़े और विजयी हुए, जिसके बाद से 2007 तक विधायक रहे. उन्हें पहले ऐसे बाहुबली विधायक का तमगा भी हासिल है जो जेल में रहते हुए चुनाव में जीत गए.

हरिशंकर तिवारी और गैंगवार

80 के दशक तक गैंगवार शब्द भारत के लिए अनजाना था. मूल रूप से यह शब्द इटली में वहां की परिस्थिति के हिसाब से गढ़ा गया था. लेकिन 80 के दशक में इस शब्द का भारतीय मीडिया और राजनीति में भी खूब इस्तेमाल किया गया. माना जाता है कि इसका श्रेय भी हरिशंकर तिवारी को जाता है. इस दौर में हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के बीच बार बार टकराव हुए, जिसे गैंगवार का नाम दिया गया. उत्तर प्रदेश में खासतौर पर लखनऊ से लेकर बलिया तक स्थिति ऐसी बन गई थी कि कब और कहां बंदूकें गरजने लगे, कहा नहीं जा सकता.

अक्सर इस गैंगवार में हरिशंकर तिवारी के लोग भारी पड़ जाते, लेकिन वीरेंद्र शाही की गैंग भी उन्हें कड़ी टक्कर दे रही थी. इसी बीच परिस्थिति ऐसी बनी कि हेमवती नंदन बहुगुणा को पछाड़ कर ठाकुर वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री बन गए. कहा तो यह भी जाता है कि राजनीति में हरिशंकर तिवारी के वर्चस्व को रोकने के लिए ही वीर बहादुर सिंह की सरकार उस समय यूपी में गैगेस्टर एक्ट और गुंडा एक्ट लेकर आई थी. बावजूद इसके तिवारी 1997 से लेकर 2007 तक ना केवल लगातार चुनाव जीतते रहे, बल्कि यूपी सरकार में मंत्री भी बने रहे.

राजनीति में बाहुबल का पहला प्रयोग

1980 के दशक तक भारत की राजनीति सूचिता के लिए जानी जाती थी. लेकिन साल 1985 में जब हरिशंकर तिवारी गोरखपुर की चिल्लूपार सीट से विधानसभा चुनाव लड़े तो पहली बार राजनीति में बाहुबल का इस्तेमाल हुआ. किसी चुनाव में यह पहली बार था जब बाहुबल का प्रयोग किया गया. इसके बाद हरिशंकर तिवारी के लिए राजनीति का दरवाजा खुल गया और और राजनीति में बाहुबल का. उसी समय से लोग हरिशंकर तिवारी को बाबूजी कहकर बुलाने लगे.

उत्पीड़न के खिलाफ राजनीति में आए

एक मीडिया हाउस को दिए इंटरव्यू में एक बार हरिशंकर तिवारी ने दावा किया था कि वह राजनीति में आना ही नहीं चाहते थे. उन्हें मजबूर किया गया. वह तो अपनी ठेकेदारी में खुश थे. लेकिन 1980 के दशक में हरिशंकर तिवारी के खिलाफ गोरखपुर जिले में 26 मामले दर्ज हुए थे. इसमें रंगदारी, वसूली, सरकारी काम में बाधा डालने के अलावा हत्या, हत्या की कोशिश, किडनैपिंग के मामले शामिल हैं. हालांकि आज तक किसी भी मामले में उनके ऊपर आरोप साबित नहीं हो सका है.

हरिशंकर तिवारी की विरासत

हरिशंकर तिवारी की विरासत अब उनके बेटे संभाल रहे हैं. वह खुद साल 2012 में मिली हार के बाद से कभी चुनाव नहीं लड़े. साल 2017 से भाजपा के टिकट पर उनके बेटे विनय शंकर तिवारी चिल्लूपार सीट से विधायक बने. उनके बड़े बेटे कुशल तिवारी संतकबीरनगर से दो बार सांसद रहे तो छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी चिल्लूपार सीट से विधायक बने. जबकि भांजे गणेश शंकर पांडेय बसपा सरकार में विधान परिषद सभापति रहे हैं.

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