Chinese President Xi Jinping (R) guides Indian Prime Minister Narendra Modi to a meeting room in Xian, Shaanxi province, China, May 14, 2015. REUTERS/Kim Kyung-Hoon

क्या चीन के मामले में भारत को अपनी रणनीति बदलनी चाहिए ?

(रणजीत एस. कल्हा)

दलाई लामा के अरुणाचल प्रदेश दौरे ने चीन की तरफ से प्रचंड विरोध को जन्म दिया है, जो दिन-ब-दिन और तेज होता जा रहा है. चीनी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता हुआ चनयिंग ने तो यहां तक कह डाला कि दलाई लामा की यात्रा ने चीन के हितों और भारत-चीन संबंधों को गंभीर नुकसान पहुंचाया है.

उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि चीन इस यात्रा का सख़्ती से विरोध करता है और भारत के समक्ष इस मसले को कड़ाई से उठाएगा. चीनी मीडिया की प्रतिक्रिया इससे कम तीखी नहीं थी.

ग्लोबल टाइम्स ने तो यहां तक कह डाला, ‘अपने केंद्रीय हितों की रक्षा करने की चीन की इच्छाशक्ति का आकलन करने में भारत ने शायद चूक कर दी है.’

सवाल ये है कि आख़िर चीन की इतनी गहरी चिढ़ की वजह क्या है. उसकी प्रतिक्रिया इतनी जहरबुझी क्यों है और क्यों उसने इतना कठोर रुख अपनाया है? इसमें कोई शक नहीं कि अरुणाचल प्रदेश भारतीय संघ का अभिन्न हिस्सा है और इस तरह से दलाई लामा भारत के किसी भी हिस्से की यात्रा करने के लिए स्वतंत्र हैं, ख़ासतौर पर अगर उनका मक़सद पूर्णतः धार्मिक है.

अतीत में भारत की कोई भी सरकार इससे पीछे नहीं हटी है. यह अलग बात है कि कुछ मामलों में विवेकाधिकार का इस्तेमाल किया गया है. लेकिन, यहां इस मसले पर चीन के नज़रिये से भी विचार करना मुनासिब होगा, ताकि हम यह अंदाज़ा लगा सकें कि अपने इस उत्तरी पड़ोसी से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं, जिसके साथ हम एक लंबी और अस्पष्ट वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) साझा करते हैं.

यह पहली बार नहीं है जब चीन ने दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा, खासकर तवांग की यात्रा पर अपनी नाराज़गी जताई है. दलाई लामा की तवांग की यह सातवीं यात्रा है. हर बार यात्रा समाप्त हो जाने के बाद चीनी विरोध शांत पड़ गया है और हालात सामान्य हो गए हैं.

इस इलाके और यहां होने वाली गतिविधियों को लेकर चीनी संवेदनशीलता भी कोई नई बात नहीं है. बहुत पहले, 8 सितंबर, 1959 को तब के चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाइ ने जवाहर लाल नेहरू को लिखा था कि यह क्षेत्र चीन के शेकियांग प्रांत के आकार का यानी 90,000 वर्ग किलोमीटर के बराबर है.

प्रधानमंत्री महोदय, ऐसा कैसे हो सकता है कि चीन दबाव में आकर एक ऐसी ग़ैरक़ानूनी रेखा को स्वीकार कर ले, जो हमें हमारे अधिकारों से महरूम करती हो? हम अपने क्षेत्र को और वह भी इतने बड़े क्षेत्र को गंवाकर खुद को कलंकित कैसे कर सकते हैं?

अगर अपनी शक्ति के शीर्ष पर माओ और झोउ नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (जैसा इसे तब जाना जाता था) पर अपने दावे को एकतरफा तरीके से भारत के पक्ष में छोड़ने के बारे में नहीं सोच सके तो आज के चीनी शासकों के लिए इस रुख से पलटना और भी मुश्किल हो गया है. लेकिन, तब से अब काफी कुछ हो चुका है, स्थितियां बदली हैं और नीतियां भी.

चीन के वर्तमान शासक अपनी स्वीकार्यता और वैधता चीन को आर्थिक और राजनीतिक रूप से नया बनाने के वादे के सहारे हासिल करते हैं. वे चीनी जनता को यकीन दिलाते हैं कि उन्हें अब फिर कभी अतीत की तरह एक सदी के अपमान का सामना नहीं करना पड़ेगा.

चीन में 1840 से 1949 यानी चीनी जन गणराज्य की स्थापना तक के समय को सामान्य तौर पर अपमान की सदी के तौर पर जाना जाता है. इस संदर्भ में कुछ बिंदुओं का उल्लेख किया जाता है.

मसलन, एक मज़बूत सरकार के नेतृत्व में चीन आज राजनीतिक रूप से एकजुट है; आर्थिक रूप से चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है; यह अमेरिका के साथ बराबरी की हैसियत चाहता है और वर्तमान समय में अमेरिका के साथ दुनिया की दो महाशक्तियों में शुमार होना चाहता है.

हाल ही में नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष फू यिंग ने क्षेत्रीय विवादों को लेकर चीन के वर्तमान रवैये के बारे में अमेरिका में ये बातें कहीं.

‘20वीं सदी में चीन लड़खड़ा कर गिर गया. हमारी पूंजी साम्राज्यवादी सेना के कब्जे में रही. एक सदी से ज़्यादा वक़्त तक चीन ने बारंबार के विदेशी हमलों और दादागिरी की पीड़ा को सहा है. इसलिए चीनी लोग जमीन के टुकड़े को गंवाने से जुड़े किसी भी मुद्दे को लेकर बेहद संवेदनशील हैं और कभी भी ऐसा कुछ फिर से होने की इजाज़त नहीं देंगे. भले यह एक इंच जमीन का ही मामला क्यों न हो! चीनी व्यवहार को समझने की कोशिश करनेवाले लोगों को यह बात हमेशा अपने दिमाग में रखनी चाहिए.’

राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अगुवाई में वर्तमान चीनी नेतृत्व घरेलू मोर्चे पर कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. साथ ही वह पूर्वी समुद्री इलाके में अमेरिका के अनिश्चित रवैये से भी दोचार है. घरेलू चुनौतियों में मंद पड़ती अर्थव्यवस्था, बूढ़ी होती जनसंख्या, चौड़ी होती आय में असमानता, पर्यावरण निम्नीकरण आदि शामिल हैं.

चीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को लेकर भी अनिश्चित है. उसे नहीं पता कि क्या आने वाले समय में अमेरिका के साथ व्यापार-युद्ध (ट्रेड वार) जैसी स्थिति बनने वाली है? ख़ासतौर से इस तथ्य के मद्देनज़र कि ट्रंप चीन पर लगने वाले मुद्रा नियंत्रण और अनुचित ट्रेड प्रैक्टिस के आरोपों के मसले पर झुकने को तैयार नहीं दिख रहे.

चीनी नेतृत्व इस पतझड़ में पार्टी के 19वें कांग्रेस की तरफ भी बढ़ रहा है, जिसमें अगले पांच साल के लिए नेतृत्व का फैसला किया जाएगा. यूं तो शी जिनपिंग के नेतृत्व को चुनौती देने वाला कोई नज़र नहीं आ रहा, लेकिन पार्टी कांग्रेस में उनकी तभी चलेगी, जब वे ‘मज़बूत’ नेता के तौर पर देखें जाएं.

इसलिए जब चीनी का विदेश मंत्रालय कोई कड़ा रुख़ अख़्तियार करता है या विरोध करता है और इसका विरोध जहरबुझा नज़र आता है, तो यह सिर्फ भारत को सोच में डालने के लिए नहीं होता. इसका एक मक़सद अपने घर में यह दिखाना भी होता है कि चीन की क्षेत्रीय अखंडता के मसले पर चीनी सरकार कितनी सख़्त है.

चीन दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश, ख़ासकर तवांग की यात्रा को अपनी क्षेत्रीय अखंडता के लिए एक चुनौती मानता है. यही कारण है कि दलाई लामा को ‘विभाजनकारी’ क़रार दिया जाता है. उन्हें पता है कि धार्मिक उद्देश्यों के लिए ही की जा रही सही, उनकी यात्रा से एक राजनीतिक स्वर भी निकलता है, जो उप-हिमालयी लोगों में प्रतिध्वनित होता है.

एक ऐसे मसले पर जो चीन में केंद्रीय महत्व का माना जाता है, चीनी नेतृत्व ‘कमज़ोर’ नज़र आने का जोख़िम नहीं उठा सकता. रणनीतिक तौर पर चीन के लिए दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर एक और मोर्चा खोलना कतई समझदारी भरा नहीं होगा, क्योंकि वह दक्षिणी चीन सागर और ताइवान जैसे तात्कालिक रूप से ज़्यादा अहम मसलों में उलझा हुआ है. लेकिन चीन के धैर्य की एक सीमा है.

हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि चीनी अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से पांच गुनी बड़ी है और सेना पर इसका ख़र्च भारत से तीन गुना है. चीन थल, जल, आकाश, अंतरिक्ष और साइबर- पांचों तरफ से कार्रवाई करने में सक्षम है.

यह हमारा अधिकार है कि हम दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश सहित भारत के किसी भी हिस्से की यात्रा के लिए आमंत्रित करें. लेकिन हमें इस बात की थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए कि हम अपने अधिकार को जताते वक़्त, चीन को ग़ैरजरूरी ढंग से न उकसाएं.

एनएसजी (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह) में भारत की सदस्यता या मसूद अज़हर के मामले में चीन के रवैये को लेकर अपनी नाखुशी जताने के और भी बेहतर तरीके हैं. हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि भारत-चीन सीमा पर पिछले कई दशकों से बना हुआ शांति का माहौल हमारे रणनीतिक हित में है.

 

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