(सुशील बहुगुणा)
भीड़ अगर किसी को पीट रही हो तो कभी उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहिए. क्योंकि भीड़ में मार पिटाई करने वाले अधिकतर लोग बिना किसी तर्क और जानकारी के हाथ पैर चला रहे होते हैं और पिटने वाला भी अपने गुनाह से ज़्यादा और कई बार बेवजह पिट जाता है. मैं दिल्ली के निगम चुनावों की ही बात कर रहा हूं. आम आदमी पार्टी के साथ दिल्ली की जनता ने जो किया है उसका अंदाज़ा हो चुका था. वो भी तब जब कुछ क्षेत्रों में आप सरकार ने अच्छी कोशिशें की हैं ख़ासतौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में. ये मेरा मानना है. बाकियों का मुझे पता नहीं. तो फिर सवाल है कि आम आदमी पार्टी इतनी पिटी क्यों. इसकी कई वजह हैं जिन्हें सुनने और विचार करने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को थोड़ा सब्र और विनम्रता रखनी चाहिए. क्योंकि इसकी ही सबसे ज़्यादा कमी उनमें है. ये वजह हैं-
– ज़रूरत से ज़्यादा नकारात्मकता और विनम्रता की कमी. हर मुद्दे पर हल्ला हंगामा, हाय तौबा, कांय कांय मचाने से तर्क आपके साथ नहीं हो जाता. ईवीएम का मुद्दा भी ऐसा ही है. हार का ठीकरा ईवीएम के सिर फोड़ देने से आप सही नहीं साबित होते. बेहतर ये होता कि हार पर चिंतन मनन किया जाता और पूरी गरिमा और विनम्रता के साथ हार स्वीकार कर ली जाती अगली बार बेहतर कोशिश के आश्वासन के साथ.
– चापलूसों से घिरा होना, उन्हें ही अपना आंख कान बना लेना. ऐसे चापलूसों ने आम आदमी पार्टी की नैया को सबसे ज़्यादा डुबाया है. अरविंद की निगाह वहीं तक देख पाएंगी जहां तक वो देख सकती हैं, उनकी निगाहों की हद के बाहर क्या हो रहा है, ये अरविंद को पता ही नहीं चला और अरविंद ने ये जानने की शायद कभी कोशिश भी नहीं की. क्या मालूम इसके लिए समय भी ना निकाल पाए हों. कम लिखा है ज़्यादा समझना चाहिए.
– अरविंद को लेकर जनता में ये छवि गाढ़ी हो गई है कि पार्टी में जो कुछ हैं वही हैं. शुरू में काफ़ी हद तक ये सही भी था लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में उतरने के बाद उन्हें अंदरूनी लोकतंत्र को भी बढ़ावा देना चाहिए था जो उन्होंने बेहतर तरीके से नहीं किया. किसी भी राज्य में स्थानीय नेताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की गई. दिल्ली से बैठे दलाल उन्हें हांकने की कोशिश में लगे रहे. नतीजा इन राज्यों में उम्मीदें परवान चढ़ने से पहले ही बुझ गईं.
– अति महत्वाकांक्षा भी अरविंद की रणनीति की एक बड़ी खामी है. बेहतर होता एक बार में एक सीढ़ी मज़बूती से चढ़ी जाती. 2019 तक प्रधानमंत्री बनने की लालसा में दिल्ली की एमसीडी भी हाथ नहीं लगी.
– ख़ुद को ही ईमानदार समझना और बाकियों की ईमानदारी को कोई महत्व ना देना. ख़ुद को ही आंदोलन समझ लेना और बाकियों के संघर्ष को महत्व ना देना.
– दिल्ली की बात करें तो आप ने भी बाकी पार्टियों की तरह ही दिल्ली को देखा. पंजाबी, पूरबिया, बिहारी और पहाड़ी के चश्मे से. तो फिर जनता भी क्या करती.
कुल मिलाकर अब तक आप ने अपनी नाकामी से वैकल्पिक, जनोन्मुखी और भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की उम्मीदों को बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचाया है. दिल्ली का नतीजा मोदी की जीत से ज़्यादा अरविंद की हार है क्योंकि दिल्ली में लोग वही हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव में मोदी को जिताने के बाद दिल्ली चुनाव में अरविंद को उससे भी बड़ी जीत दी थी. लेकिन जीत के साथ जो ज़िम्मेदारी आती है उस पर उनकी पार्टी पूरी तरह खरी नहीं उतर पाई. उम्मीद है आप कुछ सबक लेगी. समय बदलते देर नहीं लगती.