(कमल रजवार, न्यूज़ ब्यूरो )
इतना ही नहीं, दूसरी ओर खेतों में खून बहाता क़र्ज़ में डूबा वो किसान शहीद होता है, जिसके खून से सिंची फसलों को कौड़ी के भाव की कीमत नहीं मिलती. और गिद्ध रूपी बैंक साहूकार उसके शरीर की बोटियों को नीलाम कर अपना क़र्ज़ वसूलना चाहते हैं. और अंत में हार कर वो किसान घुट-घुट कर अपने परिवार के साथ खुद को उन्हीं खेतों में दफन कर लेता है, जिसे उसने अपने खून से सिंचा था. या फिर बिना किसी गुनाह के खुद को सजाए मौत सुना कर चूम लेता उस फ़ासी के फंदों को, जिसे गले लगाया था देश की आज़ादी के खातिर भगत सिंह, बिस्मिल, अशफाकुल्ला जैसे देश भक्तों ने. मगर अफसोस कि खेत में शहीद होने वाले किसानों की हालत तो सेना से भी बद्तर है कि उन्हें न तो उनके जैसा मुआवजा मिलता है और न ही मिलती हैं सलामी. उसे मिलती हैं तो सिर्फ कुर्की और नीलामी. सच कहूं तो देश के भाग्य विधाताओं के मुंह पर ये तीसरा तमाचा है.
गौरतलब है कि देश को आज़ाद हुए सत्तर साल बीतने को हैं और हम आज भी लड़ रहे हैं भुखमरी और गरीबी से. सवाल ये है कि हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी अभी भी गरीबी में गुजर-बसर कर रही है, उसके पास दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं होता फिर हम उनसे शिक्षित होने की उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं? लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं होते, अगर वो गरीब शिक्षित नहीं होंगे, तो फिर उन्हें काम या फिर नौकरी कैसे मिलेगी? यही वजहें हैं कि गरीबों को काम नहीं मिलता, पैसे नहीं होते, जिसके कारण वे भूखमरी का शिकार बनते जाते हैं. मगर ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम और हमारे नेता इन बुनियादी ज़रूरतों को छोड़, सांप्रदायिकता, जातिवाद, आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं.