सच ही कहा गया है जहाँ चाह है वहीं मंज़िल है। आज की कहानी एक ऐसे ही व्यक्ति के ओतप्रोत है जिन्होंने अपनी सफलता से इस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया है। यह कहानी है सुधीर नायर की जिन्होंने अपने भीतर सीखने की जिज्ञासा को हमेशा ज़िंदा रखा। और अपनी सफलता से उन्होंने दुनिया को यह बता दिया कि भले ही मंज़िल कितनी भी
कठिन हो रास्ते मिल ही जाते हैं। एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे सुधीर को अपने पिता के निधन के बाद पढ़ाई तक छोड़नी पड़ी थी और आर्थिक तंगी ने उन्हें घेर रखा था।
भारत जैसे देश में पढ़ाई को डिग्री के पैमाने में नापा जाता है और डिग्री ना होने की वजह से सुधीर को काफ़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी। काफी जद्योजहद के बाद भी जब उन्हें कोई ढंग की नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने सामान ढ़ोने के धंधे को ही गले लगा लिया। सहार कार्गो कॉम्प्लैक्स में सामान ढ़ोते हुए उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत की। और फिर टंकण करके उन्होनें अपनी रूची के चीज़ों को सीखने में लगा दी। इसी चाह ने उन्हें कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की दुनिया से रूबरू कराया।
कम्प्यूटर के बारे में बिल्कुल भी जानकारी ना होना भी उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी। लेकिन टंकण करते-करते वो कम्प्यूटर एक्स्पर्ट बन गये और फिर कम्प्यूटर प्रोग्रामर के लिए प्रोग्रामिंग करने भी शुरू कर दिए। इसी फील्ड में लगन के साथ काम करते-करते यो माहिर हो गए। दिन-रात कठिन मेहनत कर उन्होंने बेहद कम वक़्त में ही अच्छा काम करने लगे थे। उनकी मेहनत रंग लाई और साल 1990 में उन्होंने ‘आफ्टर नून डिसपैच’ नामक कंपनी में बतौर प्रोग्रामर जिंदगी की एक नई शुरुआत की।
उसके बाद तो उनका यह सफ़र रुका ही नहीं। जेडी एड्वर्ड्स लंडन और फिर औपटिकल डिस्क लिमिटेड, दुबई के लिए काम करते हुए उन्होंने अच्छे पैसे बनाए। साल 2006 में उनके जीवन में बड़ा बदलाव आया। अपने तजुर्बे और कारोबारी संभावनाओं को तलाशते हुए उन्होंने ‘ईरिसोर्स इन्फोटेक’ नामक एक कंपनी की आधारशिला रखी। सुधीर बूटस्ट्रैपिंग करते हुए कंपनी को कुछ ही वर्षों में भारत की एक नामी कन्सल्टिंग फर्म में तब्दील कर दिया। आज कंपनी का टर्नओवर की करोड़ों में है और हजारों लोगों को रोजगार के अवसर भी मिले।
सुधीर की सफलता पर गौर करें तो हमें यह सीखने को मिलता है कि अगर हमारे अंदर कुछ करने की जिज्ञासा हो तो दुनिया की कोई भी ताकत हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने से नहीं रोक सकता।