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राहुल-प्रियंका की बेचैनी-बेकरारी

नेशनल हेराल्ड मामले ने कांग्रेस के राजनीतिक पराभव और पस्तहाली पर मुहर लगा दी है. कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि यह वही पार्टी है, जिसका नेतृत्व कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसी शख्सियतों के हाथों में रहा होगा. क्या यह वही कांग्रेस है और क्या ये उसी कांग्रेस के नेता हैं, जिसकी दुनियाभर में तूती बोलती थी? और क्या ये उसी गांधी-नेहरू परिवार की विरासत के संभालने वाले हैं, जिस परिवार से निकली इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं?

क्या राहुल गांधी और प्रियंका गांधी उसी इंदिरा गांधी की विरासत के रखवाले हैं, जो अमेरिका की यात्रा पर गईं और अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को जब ये पता चला कि इस भारतीय महिला को उनके मंत्रिमंडलीय सदस्य ‘सर’ कहकर भी संबोधित करते हैं तो वे भागे-भागे भारतीय राजदूत बीके नेहरू के घर बिना बुलाए पहुंच गए?

नेशनल हेराल्ड मामले ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को एक बहुत बड़ा झटका दिया है और आयकर विभाग की जांच के दायरे में ला दिया है. यंग इंडिया प्राइवेट लिमिटेड वह कंपनी है, जिसके तहत कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आज से 79 साल पहले अखबारों की शृंखला शुरू करके आजादी के आंदोलन को मजबूत बनाया था.

प्रियंका और राहुल के हाथ में भविष्य कैसा?

कांग्रेस नेताओं के लिए अभी तक सुप्रीम कोर्ट की राहें खुली हैं, लेकिन पिछले दिनों के कई घटनाक्रम यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि क्या राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाकई में नेहरू-गांधी खानदान की विरासत के प्रभामंडल को बचा पा रहे हैं?

पिछले दिनों प्रियंका गांधी ने उन खबरों को निराधार बताते हुए हैरानीजनक ढंग से इस बात का खंडन किया कि उन्होंने हरियाणा में जमीन अपने पति रॉबर्ट वाड्रा या किसी कंपनी के अवैध तरीके से कमाए गए पैसे से खरीदी है. उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताया और कहा कि इस तरह की खबरें निराधार हैं. प्रियंका ने न केवल बयान जारी किया, बल्कि खंडन किया.

प्रियंका ने कहा, उन्होंने हरियाणा में खरीदी गई जमीन के लिए पैसा खुद भरा है और इस पैसे का उनके पति या स्काइलाइट और डीएलएफ कंपनी से किसी तरह का कोई संबंध नहीं है.

दादी जैसा कुछ भी नहीं?

आम तौर पर चुनावी माहौल के दौरान प्रियंका गांधी की तुलना अपनी दादी से काफी बार की जाती है, लेकिन क्या आप ऐसे समय में प्रधानमंत्री रह चुकीं इंदिरा गांधी के उन दिनों को याद नहीं करेंगे, जब वे 1977 में बुरी तरह चुनाव हार चुकी थीं. जनता पार्टी की सरकार ने उन पर चुनाव सभाओं में भ्रष्टाचार के भले कितने ही आरोप लगाए हों, लेकिन ऐसे आरोप कभी टिक नहीं सके. इंदिरा गांधी पर सत्ताधीश होने या आपातकाल लगाए जाने के आरोप भले सही साबित हों, लेकिन जनता सरकार उन्हें भ्रष्टाचार के मामले में कतई परेशान नहीं कर सकी.

इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं तो उनके एक निजी चिकित्सक हुआ करते थे डॉ. पीके माथुर. डॉॅ. माथुर ने इंदिरा गांधी के उस वक्त को याद करते हुए यह चौंकाने वाली जानकारी दी कि 1977 में जब इंदिरा गांधी चुनाव हारीं तो उनके पास कहीं और रहने के लिए कोई घर तक नहीं था. वे अपना पुश्तैनी मकान आनंद भवन तो पहले ही राष्ट्र को समर्पित कर चुकी थीं. ऐसे में उन्हें उनके एक सहयोगी मोहम्मद यूनुस ने 12, विलिंगटन क्रेसेंट राेड का अपना मकान खाली करके उन्हें दिया और वे इस मकान में रहीं. लेकिन आज प्रियंका या राहुल का राजनीतिक जीवन ऐसा नहीं है.

गांधी-नेहरू परिवार की विरासत को सहेज रहे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तथा उनके सलाहकारों से यह नहीं लगता कि वे अपने विरोधियों से समय रहते कुछ पार पा सकेंगे. इन दोनों का मुकाबला ऐसे रणनीतिकारों से हो रहा है जो अदालती दांवपेंचों को खेलना बहुत अच्छी तरह जानते हैं. कांग्रेस के विधिवेत्ता इस मामले में अपने इन दोनों नेताओं की कोई मदद नहीं कर पा रहे हैं.

अब वो बात नहीं

दिल्ली हाई कोर्ट ने नेशनल हेराल्ड मामले में यंग इंडिया लिमिटेड के खिलाफ आयकर विभाग की कार्यवाही पर रोक लगाने से इनकार कर दिया तो इससे लगा कि कांग्रेस के विधिवेत्ता और राजनीतिक रणनीतिकार यथास्थितिवाद का ही पोषण कर रहे हैं. कांग्रेस के नेताओं में किसी तरह की जुंबिश न देखकर ऐसा लगता है कि वे अपने आपको परास्त मान चुके हैं. खासकर ऐसे समय जब नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर भी धोखाधड़ी के आरोप लगे हैं.

कांग्रेस पार्टी के नेता और गांधी-नेहरू खानदान के सदस्य कभी किसी जमाने में भले ‘नवजीवन’ का संचार करते रहे हों और ‘कौमी आवाज़’ बनते रहे हों, लेकिन आज न कहीं नवजीवन की कोंपल फूटती दिख रही है और कहीं से कौमी आवाज़ उठती सुन रही है. यह हालात बेचैनी से ज्यादा बेकसी के हैं और इसीलिए ये ज्यादा परेशानी वाले हैं. अब कोई इंदिरा गांधी नहीं है, जो न किसी निक्सन से डरती हो और न किसी राष्ट्रव्यापी विरोध से.

लोकतंत्र की कोंपलों को अपने पांवों से कुचलते हुए राजनीति के रणांगन में तेजी से आगे बढ़ने वाली अब उस उद्धत और साहसिक इंदिरा गांधी की याद भी आती है जब वह जनता सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस को फिर से नवजीवन देने के लिए दक्षिण भारत में हाथी पर सवार हो जाती है और कौमी आवाज बनकर उभरती है. यह वाकई चिंताजनक है कि अब न इन दोनों नेताओं में और इनके इर्दगिर्द के सलाहकारों में न जूझने की ताब दिखाई देती है और न वह बेचैनी-बेकरारी, जो राजनीति के चेहरे पर एक नई इबारत लिख सके.

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