कुछ तो करो त्रिवेन्दर सरकार !

माननीय मुख्यमंत्री जी,

पर्वतीय राज्य उत्तराखंड को अस्तित्व में आए सोलह बरस बीत चुके हैं. इन सोलह सालों में अगर कुछ बदलाव आया तो वो उत्तराखंड के लोगों की इस राय में आया कि छोटा राज्य बनने से उत्तराखंड का कुछ भला होगा. कई राज्य आंदोलनकारी इन सोलह सालों में राज्य की जनता की खुशहाली का सपना देखते देखते विदा हो गये. आपको याद होगा कि राज्य निर्माण के आंदोलन में कई गोलियां खा कर शहीद हो गये तो कई पुलिसिया उत्पीड़न का शिकार हुए. इस स्वत: स्फूर्त जनांदोलन का अटूट हिस्सा रहने के कारण मैं जानता हूं कि पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा को लेकर ये आंदोलन हुआ उसे शुरुआत से ही नकारने का काम किया गया. नतीजा ये है कि इन सोलह सालों में राज्य ने सकारात्मक मुकाम कम और नकारात्मक मुकाम ज्यादा हासिल किये हैं. जिस पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को सरल, सहज और साधु स्वभाव का माना जाता था, वहां राज्य बनने के बाद भ्रष्टाचार की गंगोत्री ने पूरे वेग के साथ बहना शुरू कर दिया है. जल-जंगल और ज़मीन को लेकर पहाड़ के हाल वक्त के साथ बद से बदतर होते चले गये हैं. पलायन का दंश झेल रहे पहाड़ को अपने बच्चों की इंतज़ार तो है लेकिन उन्हें देने के लिये उसके पास माफिया तंत्र के हाथों रौंदने से बचे खुचे प्राकृतिक सौंदर्य और नशे के अलावा कुछ भी नहीं है. पानी, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी सौगातें अपने बच्चों को दे पाना उसके बस में नहीं क्योंकि सत्ता का विकेंद्रीकृत ढांचा पहाड़ के हक में नहीं. भ्रष्टाचार के खिलाफ आपकी सरकार की मुहिम काबिले तारीफ है लेकिन कानून के लंबे हाथ आई एम सेफ ( I Am Safe) कहने वालों और उन्हें संरक्षण देने वाले सफेदपोशों तक नहीं पहुंचे तो सरकार की बड़ी किरकिरी होगी. राज्य को घुन की तरह खा रहे नौकरशाहों की शिनाख्त करनी होगी जिन्होंने अपनी पहाड़ विरोधी मानसिकता के कारण कभी वहां की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया.

बीते सोलह बरसों में हम राज्य को पर्यटन प्रदेश, आयुष प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश जैसे कई नामों से पुकार चुके हैं लेकिन लगता है कि हमने इन नामों को सार्थक करने की बजाय कुछ और ही नाम अपने लिये पसंद कर लिये हैं. पर्यटन के नाम पर हमारे यहां असीम संभावनाएं हैं लेकिन इस दिशा में जितने भी प्रयास हुए वे या तो नाकाफी साबित हुए हैं, या फिर उनकी दिशा ही गलत है. धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यटन के नाम पर हमने पहाड़ों का सैरगाहों की तरह दोहन ही किया है और बदले में पहाड़ को मिला गंदगी का अंबार, स्थानीय महिलाओं से बदसलूकी के किस्से, नशे में हुए हादसे और बाजारों में नकली और मिलावटी सामान की मनमानी कीमतें. धार्मिक पर्यटन हमारे लिए राजस्व का एक बड़ा स्रोत है. यदि सही विजन और मिशनरी भाव से इसे अंजाम दिया जाए तो संभावनाएं अनंत हैं. आयुष के क्षेत्र में भी हमारे प्रदेश में प्रकृति की असीम अनुकम्पा है, लेकिन राज्य के कई हिस्से बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं. पहाड़ से बड़े पैमाने पर होने वाली जड़ी बूटियों की तस्करी को रोकने और इन प्राकृतिक औषधियों का लाभ स्थानीय लोगों तक पहुंचाने के लिये भी सरकार को कदम उठाने होंगे. उत्तराखंड के पास जिम कार्बेट पार्क जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के रिजर्व फॉरेस्ट हैं. यदि इन क्षेत्रों में सुनियोजित तरीके से एक दीर्घकालिक योजना तैयार कर काम किया जाए तो निश्चित ही नशे से होने वाले राजस्व का कई गुना हम इनसे पैदा कर सकते हैं. जरूरत केवल ईमानदार प्रयास और संकल्प की है.

कहावत है कि ‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. यदि इस कहावत में दम है तो आपकी सरकार शराब और खनन को लेकर कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने का प्रयास ज़रूर करेगी. हालांकि जिस तरह राष्ट्रीय राजमार्गों को जिला मार्ग करने में सरकार ने तेजी दिखाई उससे लोगों में ये आशंका बलवती हुई है कि निजाम चाहे जिसका भी हो असली सत्ता तो उन्हीं के हाथों में रहेगी जिनके पास धनबल है. ज़रूरी है कि सरकार अपनी साफ नीति और नीयत का अहसास राज्य की जनता को कराये वरना धूमिल की कविता के शब्द सजीव होकर हमसे ये ना कहने लगें कि हमारे यहां का मजबूत लोकतंत्र दरअसल एक ऐसा छलावा है जिसकी भुलभुलैया में हम कैद होकर रह गए हैं.

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