जब जीवन का हर एक मोड़ आपके खिलाफ़ हो, तब एक छोटी सी आशा की किरण का दामन भी आपको थाम कर रखना चाहिए। इस व्यक्ति ने 20 सालों तक एक ऐसे ही काम का साथ दिया जो उसके पक्ष में था और आज वह उस मक़ाम पर पहुंच चुके हैं जहाँ उनके एक हस्ताक्षर से लोगों के भाग्य बदल जाते हैं। मुहम्मद अली शिहाब अनाथालय के अभावों के बंधनों को तोड़ते हुए एक आईएएस ऑफिसर बनने का गौरव हासिल किया है।
शिहाब का जन्म केरल के मलप्पुरम जिले में एक बेहद ही गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता अपनी पत्नी, तीन बेटियों और दो बेटों के पालन-पोषण करने में भी सक्षम नहीं थे। बहुत ही कम उम्र में शिहाब को अपने पिता के काम में हाथ बटाना शुरू कर देना पड़ा l वे पान के पत्ते की बिक्री करते और बांस की टोकरी बनाकर बेचते थे ताकि उनके भाई-बहन को भूखा न सोना पड़े।
अपने बीमार पिता को घर से उनकी खस्ताहाल दुकान तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी शिहाब के कंधों ही थी इसलिए वे स्कूल बहुत ही कम जा पाते थे। 1991 में एक दिन उन्हें बहुत बड़ा सदमा पहुंचा जब उनके पिता का देहांत हो गया। वे तब सिर्फ ग्यारह वर्ष के थे। शिहाब के सामने जीवन में एक गहरा अंधकार घिर आया जिसमें उनके किसी भी सपने को जीवित रखने के लिए कोई जगह नहीं थी।
उनकी माँ के सामने अपने बच्चों का पेट भरने के लिए कोई रास्ता नहीं था। सिर्फ यही एक रास्ता था जिसमें उनके बच्चें भुखमरी और मौत से बचे रहे यदि उन्हें अनाथालय में डाल दिया जाए। कोई भी माँ यह नहीं चाहती कि उनके बच्चें उनसे दूर चले जाएँ पर फातिमा ने अपने दिल पर पत्थर रख कर अपने पति के देहांत के दूसरे ही दिन बच्चों को एक मुस्लिम अनाथालय में भेज दिया।
अगर आपके पास खोने को कुछ नहीं है तब आपके पास हासिल करने को सब कुछ होता है।
अनाथालय में जीवन कुछ बेहतर था लेकिन यहाँ पर औपचारिक स्कूली शिक्षा का अभाव था। वे मलयालम और उर्दू मदरसा में पढ़ते हुए बड़े हुए। उन्हें जो भी पढ़ाया जाता वे आसानी से समझ लेते थे। उन्होंने अपने शुरुआती जीवन के पूरे दस साल अनाथालय में बिताये। प्राथमिक शिक्षा के उपरांत इन्होने दूरस्थ शिक्षा से बीए इतिहास की पढ़ाई पूरी की।
शिहाब ने पढ़ाई के बाद सभी तरह के छोटे-मोटे काम किये। उन्होंने मज़दूरी, सड़क के किनारे के होटल्स में हेल्पर, स्कूल में शिक्षक, वाटर पंप ऑपरेटर और पंचायत में क्लर्क का काम भी किया। उनके भाई, जो अब एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, ने शिहाब को सलाह दी कि वे गवर्नमेंट की परीक्षा में बैठें, उन्हें यह सलाह अच्छी लगी। उन्होंने फॉरेस्ट, रेलवे टिकट कलेक्टर, जेल
वार्डन, चपरासी और क्लर्क आदि 21 परीक्षाएं को सफलतापूर्वक पास की।
मैं कुछ ऊँचा हासिल कर अनाथालय के हजारों बच्चों को प्रेरित करना चाहता था।
2009 में दिल्ली की ज़कात फाउंडेशन केरल पहुंची जहाँ वह बुद्धिमान बच्चों को चुन कर उनका मार्गदर्शन करना चाहती थी। यह शिहाब के लिए एक बड़ा अवसर बन कर आया और उनका चुनाव हो गया। थोड़ा सा ही मार्गदर्शन चाहिए था उन्हें अपना उत्कृष्ट देने के लिए। उनकी प्रबल इच्छा अपने बेहतर जीवन के लिए और अपने भाई-बहनों के लिए था।उन्होंने वहाँ से कोचिंग
ली। उनके पास किताबें और अखबार खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे इसलिए वे पब्लिक लाइब्रेरी में पढ़ाई करते थे।
“मै अपने छात्रावास में अपने चादर और तकिये के अंदर बहुत ही कम रौशनी में पढ़ा करता
था जिससे बगल वाले बिस्तर में सोने वाले मित्रों की नींद न ख़राब हो। असल में मैंने
अनाथालय के नियमों का उल्लंघन किया था।” — शिहाब
पहले की गई दो कोशिशों में वे असफल रहे परन्तु उन्होंने अपना मनोबल बनाये रखा। परन्तु चुनौतियाँ ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। शिहाब की नवजात बच्ची को पैरालिसिस हो गया था। अपनी तीसरी कोशिश के दौरान वे किताबों और हॉस्पिटल के बीच चक्कर लगाते रहे परन्तु फिर भी उन्होंने अपना फोकस बनाये रखा और परीक्षा में बैठे।
जब 2011 का यूपीएससी का रिजल्ट आया तब उन्होंने 226वां रैंक हासिल किया था। अपने अंग्रेजी भाषा के कम ज्ञान के कारण उन्होंने इंटरव्यू में एक ट्रांसलेटर रखा था और तब भी 300 में से 201 नंबर हासिल किया, जो कि काफी अच्छा स्कोर माना जाता है। शिहाब अभी नागालैंड के कोहिमा में पदस्थ हैं l वे अपनी सफलता का श्रेय अपने अनुशासन को देते हैं। अपने अनुशासन, कठिन श्रम और लगातार कोशिशों के बल पर उन्होंने चुनौतिओं का सामना कर सफलता पाई। शिहाब हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन गए हैं।