उत्तराखंड के पहाड़ों और यहां की जीवनदायिनी नदियां सूख रही हैं। तेज़ी से सूखने वाली नदियों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि दो दर्जन से ज्यादा है। उत्तराखंड में पर्यावरणीय असंतुलन ऐसा है कि एक दशक में नदियों में पानी का जल स्तर सिर्फ 10 फीसदी रह गया है। अकेले देहरादून की ही 8 नदियां सूख चुकी हैं। आने वाले समय में अगर इसी रफ्तार से नदियों के जल स्तर में कमी आती जाएगी तो एक दिन पहाड़ में पीने के पानी का संकट पैदा हो जायेगा।
जिन नदियों के बहने से पहाड़ की खूबसूरती बढ़ती थी, वही सूखी नदियां पहाड़ पर एक धब्बे जैसी नजर आ रही हैं। उत्तराखंड की करीब 20 नदियों में जल स्तर सिर्फ 10 फीसदी ही रह गया है। कई नदियां तो पूरी तरह सूख चुकी हैं। कई नदियां बरसाती नालों में बदल चुकी है।
रिसर्च के नतीजे बेहद भयावह
विशेषज्ञों ने उत्तराखंड की नदियों पर जो रिसर्च की है उनके परिणाम बहुत भयानक दिखाई दे रहे हैं। इस रिपोर्ट से पता चला है कि अकेले देहरादून जिले की ही 8 नदियां सूख चुकी हैं। इनमें भितरली, रिस्पना, कालीगाड़, खेतू, सौंग, बिंदाल, सवर्णा और मालडुंग नदियां शामिल हैं। ज्यादातर नदियों में पानी सिर्फ बरसात के मौसम में ही आता है। वो भी शहर भर की गंदगी को हरिद्वार में मां गंगा तक पहुंचाने का ही काम करती हैं।
पर्यावरण में हो रहा बदलाव बना कारण
उत्तराखंड की नदियों के सूखने की ये समस्या एक दिन में ही पैदा नहीं हुई है। इसके पीछे लंबे समय से पर्यावरण में हो रहा बदलाव एक बड़ा कारण है। जानकारों और वैज्ञानिकों की मानें तो नदियों में पानी दो कारणों से आता है। पहला ग्लेशियरों के पिघलने से और दूसरा बारिश से। लेकिन वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च में पाया है कि ग्लेशियरों में जो बर्फ गिरा करती है उसकी मात्रा में कमी आई है।
गर्मी के कारण पिघल रहे हैं ग्लेशियर्स
पहले जो ग्लेशियर बर्फ से लकदक रहा करते थे वो गर्मी के कारण पिघल रहे हैं। इस कारण ग्लेशियर से नदियों में आने वाले पानी की मात्रा में कमी आ रही है। एक बात और सामने आई है कि पहले ग्लेशियरों में सिर्फ बर्फ गिरा करती थी लेकिन अब वहां पर बर्फ के बजाय बारिश गिर रही है। इसलिए ग्लेशियरों से एक साथ पानी नदियों में आ जाता है। जबकि बर्फ पिघलने के कारण साल भर नदियों में पानी की पूर्ति सीधे तरीके से प्रभावित हो रही है।
बारिश के ट्रेंड में आया बदलाव
दूसरा कारण है की बारिश का नदियों में पानी आता है। लेकिन देखने में आ रहा है कि साल भर होने वाली बारिश की मात्रा तो लगभग उतनी ही है। हां, बारिश के ट्रेंड में बदलाव जरूर हो गया है। अब कम समय में ज्यादा पानी बरसने से वो बह जाता है और जमीन के भीतर नहीं जा पा रहा है।
चल रही लंबी बहस
वैज्ञानिकों राजेन्द्र डोभाल की मानें तो इस दिशा में अब लंबी बहस चल रही है। दुनिया भर में रिसर्च हो रही है। कौन से ग्लेशियर और कौन सी नदी का पानी कहां जा रहा है, उस पर रिसर्च का दायरा बढ़ गया है। अब वैज्ञानिकों ने ये पता कर लिया है कि किसी ग्लेशियर और नदी का पानी यदी कहीं गायब हो रहा है और किसी दूसरी जगह पर वो पानी मिल रहा है तो पता चल जाता है कि इस पानी का सोर्स कहां पर हैं।
पहले बारिश थोड़ी-थोड़ी होती थी तो पानी रिसकर जमीन के नीचे जाता था। ग्राउंड वॉटर लेवल बढ़ता था। यही पानी कहीं न कहीं नदियों में पानी की कमी को पूरा करता था। लेकिन अब कम समय में एक साथ ज्यादा बारिश होने से रिसकर जमीन के भीतर जाने वाली प्रक्रिया बाधित हुई है।
देहरादून जिले में सूखने वाली नदियां-
- भितरली
- रिस्पना
- कालीगाड
- खेतू
- सौंग
- बिंदाल
- सवर्णा
- मालडुंग
इनमें से ज्यादातर नदियों में पानी सिर्फ बरसात के मौसम में ही आता है। वो भी शहर भर की गंदगी को हरिद्वार में मां गंगा तक पहुंचाने का ही काम करती है।
अन्य नदियां जिनका अस्तित्व ख़तरे में है-
- टिहरी में बहने वाली- सौंग, अगलड़ और बालगंगा
- पौढ़ी में बहने वाली नयार
- चमोली की रामगंगा
- उत्तरकाशी की कमला नदी
- अल्मोड़ा की कोसी और श्रोता नदी
- पिथौरागढ़ की स्यालीखेत और भिलौत थरकोट
- चंपावत की लोहावटी और गंडक