उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से ही मातृशक्ति शराब का विरोध करती आ रही है। लेकिन प्रदेश में काबिज होने वाली सरकारों का इससे कोई भी लेना देना नहीं रहा। प्रदेश में बारी बारी काबिज हुई सरकारों के लिए तो शराब किसी ”प्राणवायु से कम नहीं रही। बात अगर प्रदेश में प्रचंड बहुमत लेकर सत्ता पर काबिज हुई भाजपा की करे तो इस सरकार ने तो शराब बची रहे इसके लिए सड़कों की बलि तक दे डाली। उत्तराखंड सरकार ने प्रदेश के निकायों से गुजरने वाले राज्य राजमार्गों (स्टेट हाई वे) का स्टे्टस बदल कर उन्हें जिला मार्ग ( डिस्ट्रिक रोड) में तब्दील कर दिया है। इसके पीछे सरकार का मकसद केवल और केवल सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से बचना था, जिसके तहत एक अप्रैल से नेशनल तथा स्टेट हाइवे पर स्थित शराब की दुकानों को हटा कर पांच सौ मीटर दूर शिफ्ट किए जाने की बाध्यता है। सरकार यदि चाहती तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को योजनाबद्ध तरीके से सूझ बूझ के साथ अमलीजामा पहना सकती थी। ऐसा करके पूर्ण शराबबंदी भले ही न हो पाती, मगर शराब के बढते प्रचलन को हतोत्साहित तो किया ही जा सकता था। लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि शराब की दुकानों को बचाने को प्राथमिकता दी और इसके लिए देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेश को एक तरह से दरकिनार किया है। क्योंकि उत्तराखंड सरकार द्वारा कैबिनेट में लिए फैसले से स्टेट हाईवे को डिस्ट्रिक रोड में बदल दिए जाने के बाद अब जो शराब की दुकानें पूर्व में स्टेट हाईवे के किनारे स्थित थी अब वह दुकानें उन्हीं स्थानों पर बनी रहेंगी।
बताते चले कि इन सड़कों पर गुजरने वाला यातायात भी पहले की ही तरह रहेगा और शराब खरीदने वाले लोग भी पहले की ही तरह इन शराब की दुकानों खरीद सकेंगे। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा किये जाने से अदालत के आदेश के क्या मायने रह गये। उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट का यह निर्णय यह बया कर रहा है कि अधिक राजस्व जुटाने के लिए सरकार के पास शराब से आगे बढ़कर सोचने की दृष्टि नहीं है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तोड़ निकालने के लिए सरकार ने यह जो पैंतरा चला है, वह इतना कमजोर है कि अदालत में इसे आसानी से चुनौती दी जा सकती है।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय व राजकीय राजमार्गों पर स्थित शराब की दुकानों को हटाने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पिछले एक दशक से एडवाइजरी जारी करता आ रहा है, जिसके बाद केंद्र भी राज्यों को हाई वे से शराब की दुकाने हटाने को कहता रहा है, लेकिन राज्यों ने कभी भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। इस बार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बड़ी ‘उम्मीद जगी थी, लेकिन इस उम्मीद पर सरकार की कैबिनेट के निर्णय ने पानी फेर दिया है।