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सुकमा और कश्मीर की घाटियो की वही पुरानी दर्दनाक चीखें

राजीव गांधी कहते थे हमने देखा, हम देख रहे हैं तो अटल जी कहते रहे ‘‘लक्ष्मण रेखा पार हो चुकी है‘‘, हमारे गृहमंत्री कहते हैं सैनिकों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कहती हैं अलगाव वादियों से बात करनी चाहिए तो फारुख अब्दुल्ला सुकमा और कश्मीर घाटियों में हुए शहीदों की संख्या गिन रहे हैं। उनके पिता शेख अब्दुल्ला जेल में डाले गए, कश्मीर को आजाद कराना चाहते थे। कश्मीर में पीर पंजाल की पहाड़ियों और हाजी पीर दर्रे पर कब्जा किए बगैर कश्मीर घाटी में शान्ति असम्भव है।

सुकमा और कश्मीर घाटियों में नक्सलवादियों और आतंकवादियों के पास अत्याधुनिक राइफलें और ऑटोमेटिक मशीन गन हैं तो हमारे जवानों के पास अभी भी मंगल पांडे वाली दुनाली बन्दूकें हैं। इतना ही नहीं, स्थानीय समर्थन के कारण नक्सलियों और अलगाववादियों को सेना की पल-पल की जानकारी रहती है और सेना को उनके इरादों की भनक तक नहीं लग पाती। ऐसा कोई उपाय नहीं किया गया कि हमारे जवान दुश्मन पर हावी हो सकें, उल्टे हमारे सैनिक रक्षात्मक मुद्रा में रहते हैं।

बस्तर के आदिवासी अच्छे तीरंदाज होते हैं और उनकी तीरंदाजी का लाभ हमारी सरकारें नहीं ले सकीं। नक्सलियों ने उनका उपयोग करके तीर बम दागे। स्पष्ट है कि आदिवासियों की सहानुभूति नक्सलियों के साथ है जो वहां समानान्तर सरकार चलाते हैं और कश्मीर में आतंकवादियों के साथ पत्थरबाजों की सहानुभूति है, चाहे जितनी इम्दाद हमारी सरकार करती रहे। सेना की टुकड़ी कार्रवाई के लिए चलती है और नक्सलियों अथवा कश्मीरी आतंकवादियों को सूचना पहले हो जाती है क्योंकि रक्षक बलों के बीच में ऐसे लोग मौजूद हैं जिनकी सहानुभूति शत्रु के साथ है। आतंकवादियों और नक्सलियों के छुपने के ठिकाने नष्ट करने की जरूरत है।

आदिवासिंयों और नक्सलियों में उसी तरह पहचान नहीं हो सकती जैसे आतंकवादियों और पत्थरबाजों में सम्भव नहीं। आदिवासियों के घर नक्सलियों के पनाहगार हैं जैसे कश्मीरियों के घरों में पाकिस्तानी आतंकवादी आकर रहते हैं। कश्मीर के सैनिक कैंपों में कहां से घुसना है और कब घुसना है यह आतंकवादियों को उनके मुखबिर बताते हैं।

वे कैंपों में घुसकर सैनिकों की जान लेते हैं और सुरक्षित चले जाते हैं, शायद उन्हीं घरों को जहां से पत्थर बरसते हैं। सरकार चाहे तो घर घर तलाशी लेकर पता लगाकर उन्हें पकड़ सकती है जैसे गुजरात में मोदी सरकार ने किया था। भारत की धरती पर पाकिस्तान बाशिन्दे कब तक बर्दाश्त किए जाएंगे। जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ 1965 में सदा के लिए समाप्त हो सकती थी जब भारतीय सेनाओं ने पीर पंजाल की पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया था और हाजी पीर दर्जा पर भी नियंत्रण हो गया था।

दबाव में पड़़कर लाल बहादुर शास्त्री को ताशकन्द समझौते के तहत यह सब लौटाना पड़ा था, जो शायद उनकी मौत का कारण बना था। फिर से 1971 में हाजी पीर पर कब्जा सम्भव था लेकिन प्रयास नहीं किया गया। जब तक पीर पंजाल की पहाड़ियों पर कब्जा और हाजी पीर दर्रा पर हमारा नियंत्रण नहीं होगा पाकिस्तानी घुसपैठ रुक नहीं सकती। हमारी सरकार और सेनाओं को यह पता है। कम से कम हमारे सैनिकों को रिमोट सेंसिंग द्वारा हेलिकॉप्टरों का प्रयोग करके सुकमा और कश्मीर घाटियों में सटीक जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

बस्तर में सड़कें और आवागमन के साधन पिछले 70 साल में इसलिए नहीं बने कि आदिवासियों की संस्कृति संरक्षित रखनी है और कश्मीर में भारत के लोगों को बसने नहीं दिया जा रहा कि कश्मीरियत को बचा कर रखना है। अब हम सड़कें बनाना चाहते हैं और अर्धसैनिक बल भेज कर निगरानी करते हैं जिसका परिणाम है सैकड़ों बीएसएफ़ जवानों की मौतें। हम हवाई निगरानी क्यों नहीं कर सकते। कश्मीर और सुकमा में शहीद हो रहे वीरों के लिए अब तक जो होता आया है काफी नहीं है।

अंग्रेज सर्वेयर रेडक्लिफ़ ने जो सीमा रेखा बनाई थी वह भारत के हितों के विपरीत है। अब उसे शायद बदल नहीं सकते लेकिन जम्मू कश्मीर प्रान्त के तीन भाग बनाए जा सकते हैं, जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख। ये तीनों क्षेत्र अलग अलग भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान वाले हैं और विकास का अपना मॉडल चुन सकते हैं। यदि धारा 370 इसमें बाधक हो तो उसे रद्दी की टोकरी में उसी तरह डाल देना चाहिए जैसे प्लेबिसाइट के नेहरू वादे को डाला गया है। कश्मीर और सुकमा घाटियों में हम छलनी में दूध दुह रहे हैं और भाग्य को दोष दे रहे हैं।

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