देश का सबसे बडा सूबा जातीय उन्माद की भेंट चढ़ रहा है। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में यूं हिंसा होती रही है, मगर विगत एक दशक में इसका चेहरा विद्रुप हो चुका है। याद कीजिए 90 के दशक में राममंदिर-बाबरी मस्जिद मामले को जिसने सूबे को दो धारी तलवार के रूप में बदल दिया। हिन्दू मुस्लिम के खून का प्यासा बन बैठा तो, मुस्लिम ने हिन्दू को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगा था। यह राजनीति थी, जिसने गंगा-यमुना तहजीब को सांप्रदायिक उन्माद का रूप दे दिया। इसके लिए दोनों समुदाय के तथाकथित राजनेताओं के कुत्सित प्रयास का नतीजा कह सकते हैं।
यूपी में सत्ता की चाभी चाहे सपा के हाथों में हो या बसपा के हाथों या फिर वर्तमान की भाजपा सरकार, सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में सभी सरकारें नाकाम रही हैं। मेरठ, मुजफ्फरनगर, अयोध्या, मथुरा जैसे अनेक शहर सांप्रादायिक हिंसा की भेंट चढ़ गए। जाट बहुल क्षेत्रों में जहां कभी किसानों की फसलें लहलहाती थी, आज लव-जेहाद और कानून को ढेंगा दिखाने वाले पंचायतों की क्रूरता की हद को पार कर चुकी हैं। मानवता तार-तार हो रही हैं। इसी बीच सहारानपुर की हिंसा ने एक और जख्म सूबे को दे दिए हैं जिसे जातीय उन्माद की पराकाष्ठा कह सकते हैं। सहारनपुर ऐतिहासिक और राजनीतिक दृष्टि से बेहद अहम क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। गंगा-यमुना दोआब का यह इलाका है, गंगा-जमुनी तहजीब का संवाहक रहा है। माँ शाकुम्बरी देवी जैसे धार्मिक स्थल और दारुल उलूम जैसे इस्लामिक शिक्षा के केन्द्र के कारण विश्व के कोने-कोने में जाना जाता है। गेटवे ऑफ यमुना के नाम से प्रचलित सहारनपुर को सांप्रदायिकता की जहर ने डस लिया है। एक समय में रूहेला नवाबों का शहर था अब राजपूतों और दलितों की हल्दी घाटी बन चुका है। 32 ग्रामों में बंटे इस क्षेत्र में राजपूतों और दलितों का दंगल आज ज्यादा चर्चा में है।
दिल्ली से करीब 180 किलोमीटर की दूर स्थित सहारनपुर में दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे बनते जा रहे हैं। एक समय में सौंहार्द और सांस्कृतिक परंपरा की ज्योत जलाने वाला सहारानपुर तलवार की धार पर मानवता को खंडित-खंडित कर रहा है। देखा जाए तो सदियों से दलित समुदाय उच्च जातीय वर्ग संघर्ष से पीसता रहा है। मगर जैसे-जैसे चेतना जागृत हुई तो यह समाज आज उठ खड़ा हुआ। सहारानपुर में यही देखा जा रहा है कि राजपूतों के मुकाबले एक सेना संगठित तरीके से काम कर रही है। एक समय उच्च जातियों की सेना होती थी, मगर दलित समुदाय के सम्मान और अधिकार के नाम पर संगठित इस सेना जिसे लोग
भीम आर्मी भारत एकता मिशन के नाम से जाते हैं। ये नए युग का जातीय संघर्ष है जो हाईटेक तरीके से अपने विचारों को आगे बढ़ाने के साथ-साथ कानूनन और गैर-कानूनन दोनों तरह से वंचितों को सम्मान दिलाने में जुटे हुए हैं। जुलाई 2015 में इस सेना का गठन एडवोकेट चंद्रशेखर आजाद ने किया था। यानी भारतीय सेना की चुनौती रणवीर सेना, नक्सली सेना के बाद अब भीम आर्मी सेना से निबटने की होगी। इसके संस्थापक चंद्रशेखर मानते हैं कि भीम आर्मी का मकसद दलितों की सुरक्षा और उनका हक दिलवाना है, लेकिन इसके लिए वह हर तरीके को आजमाने का दावा भी करते हैं, जो कानून के शब्दकोष में भी नहीं आता। इसके पूर्व बजरंग दल सेना, हिन्दूवाहिनी सेना जैसी कट्टरपंथी निजी सेना के उत्पाद को देख चुके हैं जिसको स्थानीय प्रशासन नकेल कसने में हमेशा नाकाम रहा है।
यदा-कदा सफलता की बात तो सुनने को आती है, मगर पूर्णतः इस प्रकार की कट्टरपंथियों पर लगाम लगाने में अभी तक प्रशासन असफल रहा है। हो सकता है कि इसके पीछे भी राजनीतिक शक्तियां और तंत्र हो जिसकी वजह से प्रशासन के हाथ बंधे हों। केवल सहारनपुर ही नहीं देश के तमाम उन जगहों पर जहां सवर्ण और पिछड़ी जातियों के बीच जातीय संघर्ष है, वहां के हालात कमोवेश ऐसे ही हैं। याद कीजिए 9 मई को सहारनपुर में घटित हुई हिंसा पर भीम आर्मी के संस्थापक विनय रतन सिंह के उस बयान को जिसमें उन्होंने बताया कि हम हिंसा नहीं चाहते थे। हम लोगों ने एक पंचायत बुलाई थी. यह पंचायत मुल्लीपुर कांड के मुद्दे पर बुलाई गयी, जिसकी जानकारी डीएम सहारनपुर को ज्ञापन के माध्यम 7 मई को जानकारी दी गई थी। इस पंचायत की जानकारी सोशल मीडिया के जरिए हर जगह दी गई थी. पुलिस प्रशासन ने भारी संख्या में पुलिस बल तैनात कर दिया था। जब बच्चों पर पुलिस वालों ने लाठियां बरसायी तो मामला उग्र हो गया। वैसे तो रतन किसी भी राजनीतिक सरोकारों से इंकार करते हैं, मगर सूबे में बसपा दलितों और पिछड़ों की राजनीति करती आई है, जिससे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है, इसके पीछे बसपा का मौन समर्थन हो। आज जब केंद्र सरकार सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की सोच रही है, मगर इन सबसे बेपरवाह भीम आर्मी के सदस्य सोशल मीडियां पर काफी एक्टिव हैं।
इनके नेटवर्क मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा में फैले हुए हैं। छोटे-छोटे धन के जरिए इस आर्मी को संचालित किया जा रहा हैं। ऐसा दावा किया जा रहा है कि इस संगठन से लगभग 40 हजार सदस्य जुड़े हुए हैं। सहारनपुर का घडकौली गांव में घूसने के साथ ही आपको द ग्रेट चमार डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ग्राम घडकौली आपका स्वागत करता है, जैसा बड़ा साइन बोर्ड मिल जाएगा। एक हजार से ज्यादा आबादी वाले घडकौली गांव में 800 से ज्यादा दलित परिवारों का इस आर्मी को समर्थन सचमुच प्रशासन के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। अब देखना है कि योगी सरकार इस प्रकार के निजी सेना पर अंकुश लगाने में कामयाब होती है, या फिर ये भी दूसरी निजी सेना की तर्ज पर प्रशासन को ढेंगा दिखाते रहेंगे। यानी जब तक जातीय संघर्ष रहेगा, तब तक मानवता इसी सांप्रदायिक आग में झुलसती रहेगी और सहारानपुर जैसे कांड दूसरे सूबे में होते रहेंगे।