यूपी की सत्ता संभालने के बाद जिस धमाकेदार अंदाज में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आगाज किया था, उसकी धमक अब मद्धिम पडऩे लगी है। अपने सख्त तेवर और फैसलों की वजह से जनता के बीच योगी की छवि नायक की बन गई थी। ऐसा नायक जो समाज में अमन चैन कायम करेगा और आने वाले समय में उनकी समस्याओं का समाधान करेगा, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा। दरअसल सत्ता चलाना आसान नहीं होता। सत्ता में दोस्त से ज्यादा दुश्मन होते हैं। ऐसा ही कुछ योगी आदित्यनाथ के साथ हो रहा है। दुश्मनों से ज्यादा दोस्त उनकी राह में रूकावट बन रहे हैं। इसका नतीजा है कि एक तरफ जनता योगी से नाउम्मीद हो रही है तो दूसरे विपक्षी दलों के निशाने पर योगी आ गए है। विपक्षी दलों के सवालों के जवाब योगी को ढूंढ़े नहीं मिल रहा है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राह में उनके अपने ही बांधाएं खड़ी कर रहे हैं। योगी अपनी प्राथमिकताओं को बता चुके हैं, लेकिन उनकी ही पार्टी के लोग उनकी बात को नहीं मान रहे हैं। विधानसभा चुनाव में जिस कानून-व्यवस्था को मुद्दा बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में वापसी की, आज उसी मुद्दे पर योगी सरकार की किरकिरी हो रही है। विपक्षी दल लगातार कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर योगी सरकार को घेर रहे हैं और इस सवाल का जवाब योगी को देते नहीं बन रहा है। जब योगी आदित्यनाथ ने सत्ता संभाली थी तब उनके जो तेवर थे, वो अब नहीं दिख रहे हैं। दो माह पहले जिस तरह शासन-प्रशासन सक्रिय था, आज वह सक्रियता नहीं दिख रही है। कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर उनके पास सिर्फ एक ही जवाब है कि वर्षों की जर्जर व्यवस्था ठीक होने में वक्त लगेगा। उनका कहना भी सही है। लेकिन आज प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिगाडऩे में किसका हाथ है यह किसी से छिपा नहीं है। अब तो कानून तोडऩे वाले भी उन्हीं के लोग हैं और कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने वाले भी।
पिछले दिनों विधानसभा और विधान परिषद के सत्र में जिस तरह विपक्षी दलों ने योगी सरकार को कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर घेरा , उससे साफ प्रतीत हो रहा था कि विपक्षी दलों के सवालों का जवाब योगी के पास नहीं है। बीजेपी के रणनीतिकारों की रणनीति भी काम नहीं कर रही है। इसकी बानगी पांच दिन चलने वाले विधानसभा के सत्र में देखने को मिली। विपक्ष के आक्रामक रवैये ने सत्ता पक्ष की बोलती बंद कर दी। थी। सीएम योगी के दो माह के कार्यकाल में ही विपक्षी दलों को इतने मुद्दे मिल गए कि उन्होंने विधानसभा और विधान परिषद में योगी सरकार के खिलाफ जमकर मोर्चा खोला। राजनीतिक पंडित भी इससे इनकार नहीं कर रहे कि योगी अपनी प्राथमिकताओं को लेकर दृढ़ हैं, लेकिन शीर्ष नेतृत्व के हस्तक्षेप की वजह से वह खुलकर काम नहीं करा पा रहे हैं। कुछ मामलों में उनकी नहीं चल रही है। वह खुलकर काम करना चाह रहे हैं, लेकिन उन्हें करने नहीं दिया जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से प्रदेश में जातीय संघर्ष और साम्प्रदायिक दंगे हुए, उससे योगी सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना लाजिमी है। सहारनपुर को लगातार सुलगाने की कोशिश की जा रही है। 21 अप्रैल से वहां शुरु हुआ संघर्ष अब तक थमा नहीं है।
बीस दिन में तीन बार वहां जातीय संघर्ष की घटनाएं हुई। सूबे के पुलिस मुखिया डीजीपी सुलखान सिंह खुद वहां गए और हालात का जायजा लिए, लेकिन हालात पर नियंंत्रण नहीं हो पाया। 23 मई को एक बार फिर सहारनपुर में जातीय हिंसा भडक़ गई। वहां के हालात अभी भी तनावपूर्ण हैं। पिछले दिनों ऐसे ही आगरा, बुलंदशहर, अलीगढ़, गोंडा और संभल में साम्प्रदायिक घटनाओं ने कानून-व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी। ज्यादा चिंता की बात यह है कि इन वारदात में बीजेपी और तथाकथित हिन्दूवादी संगठनों के लोगों की संलिप्तता के आरोप लगे हैं। अब यहां सवाल उठता है कि योगी को किससे निपटना हैें। ऐसे ही पिछले दिनों प्रदेश भर में कई पेट्रोल पंपों पर छापेमारी में चिप मिली। पेट्रोल पंप मालिकों के खिलाफ क्या कार्रवाई अब तक हुई यह जनता भी जानना चाहती है और हाईकोर्ट भी। ऐसे कई सवाल अब सीएम योगी के समक्ष खड़े होने लगे है। इन सवालों पर योगी की चुप्पी से उनकी छवि प्रभावित हो रही है।